आज समाज में जो मृत्यु-भोज चल पड़ा है क्या वह धर्म के विरुद्ध है? उसमें जाने से कितना दोष लगता है?
मृत्यु-भोज का कहीं धार्मिक दृष्टि से कोई औचित्य नहीं है और सामाजिक दृष्टि से भी वह समाज पर बोझ है। व्यक्ति जीते-जी अपने बाप-दादा को न पूछे, मगर मरने के उपरान्त गाँव वालों को जरूर पूछना पड़ता है। वह आदमी मर गया और उसे छप्पन भोज खिलाना पड़ता है। ये कुरीति है इससे बचना चाहिए।
मैं आज आप लोगों को इस सन्दर्भ में एक संदेश और देना चाहता हूँ। मैंने देखा कि समाज में कुछ ऐसी कुपरम्पराएँ चल गईं हैं। लोग कहते हैं कि हम सहानुभूति के लिए गये हैं, लेकिन वह सहानुभूति नहीं उस परिवार पर एक बोझ बन जाता है। मृत्यु भोज तो रहने दीजिए किसी के यहाँ मृत्यु हुई और १०-१२ दिन लोग बैठने जाते हैं। उनके लिए ये हालत हो जाती है कि घरवालों को हलवाई बुलवाना पड़ता है, लिस्ट बनवानी पड़ती है। कच्ची मौत हो जाये तो भी वहाँ लोग गुलछर्रे उड़ाते हैं। मैं आपसे यही कहता हूँ कि आप किसी के यहाँ मृत्यु उपरान्त बैठने जाओ, जरूर जाओ। यदि वह लोकल है तो उसके यहाँ का एक गिलास पानी भी मत पियो, चाहे वह कितना भी आग्रह करे, विनम्रता पूर्वक न कह कर निकल जाओ। बाहर जाओ तो ये तय करो कि ‘हम उसके यहाँ खिचड़ी खा के आ जायेंगे।’ होना तो ऐसा चाहिए कि जिसके यहाँ मृत्यु हुई है उसके यहाँ १० दिन सूतक तक कढ़ाई न चढ़े।
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