आज के परिवेश में जब हम आस-पास देखते हैं तो परिवार में लड़ाई, विवाद और तलाक जैसी स्थितियाँ देखने को मिलती हैं। इसमें बहुत कुछ अंश मुझे ये लगता है कि माँ अपनी बच्ची की ससुराल में और बच्ची अपने मायके में जरूरत से ज़्यादा हस्तक्षेप करती हैं। हमारे यहाँ एक प्रथा है कि बच्ची की डोली मायके से उठती है और अर्थी ससुराल से उठती है। लगता है अब इसमें कुछ शिथिलता आ गई है। इसी तरह एक दिमाग में दो विचार क्यों आते हैं? एक बच्ची कहती है कि ‘अकेले परिवार में जाऊँगी मुझे संयुक्त परिवार में नहीं जाना है।’ माँ भी कहती है कि ‘मेरी बच्ची अकेले परिवार में ही जायेगी, संयुक्त परिवार में नहीं।’ लेकिन वही बच्ची अपने मायके के बारे में सोचती है कि मेरी भाभी संयुक्त परिवार में आये और माँ भी कहती है कि संयुक्त परिवार में आये और हमारी सेवा करे।
ये बात बिल्कुल अनुभव सिद्ध बात है। जिस घर में बेटियों की भागीदारी बढ़ जाती है उस घर का बंटवारा हो जाता है। आपने अपनी बेटी को विदा कर दिया, उसका घर वो है, ये नहीं। नित्य प्रति माँ के साथ बेटी की नजदीकियाँ ज़्यादा होने के कारण, उस तरफ से जिस तरह की अनुभूति मिलती है उससे घर में रहने वाली बहू के प्रति सास का पूर्वाग्रह बढ़ जाता है; बल्कि कुछ दुराग्रह बन जाते हैं, और इसके कारण घर को फूटने में देर नहीं लगती है।
होना ये चाहिए कि बेटी विदा होकर ससुराल चली गई तो घर के लोगों को ये कहना चाहिए कि ‘तू मेरे घर की बेटी नहीं, उस घर की बहू है तुझे उसी घर को ठीक करना है। अपनी समस्या को अपनी कुशलता से ठीक करना है।’ यदि इस घर के विषय में कोई कुछ बात कहे तो- ‘तू उसकी चिन्ता मत कर इसके लिए हम सक्षम हैं, सब ठीक हो जायेगा’, तो मामला बिगड़ता नहीं है। पर यदि ऐसा होने लगता है, तो मामले बहुत बिगड़ने लगते हैं। यही कारण है कि जहाँ इस देश में तलाक जैसे शब्द सुनने में लोगों को आश्चर्य होता था अब आम होता जा रहा है। माँ-बाप के ऊपर अब दोहरी चिन्ता हावी होने लगी है। पहले तो वे सोचते हैं कि मेरे बेटा या बेटी का विवाह हो जाये, सम्बन्ध हो जाये फिर तीन-चार वर्ष तक टेंशन रहता है कि वह सेट हो जाये। जब तक सेटल नहीं होते तब तक दिमाग में तनाव रहता है।
दूसरी बात जो आपने पूछी है संयुक्त परिवार और एकल परिवार का, तो लोगों की सोच बदल गयी। भारत जो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का संदेश देता था वहाँ कुटुम्ब खत्म हो गया परिवार भी बिखर रहा है। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है? कुछ लोगों ने ये अनुभव करना शुरू कर दिया कि संयुक्त परिवार में जितनी सुरक्षा है उतनी अन्यत्र नहीं है। मैं एक ही लाईन में कहता हूँ कि एकल परिवार में स्वतंत्रता है सुरक्षा नहीं, और संयुक्त परिवार में सुरक्षा है स्वतंत्रता नहीं है। ये तय आपको करना है कि आप को क्या चाहिए? सुरक्षा या स्वतंत्रता! आज कल लोग सुरक्षा को ताक पर रखकर स्वतंत्रता का रास्ता अपनाते हैं। उसका जो परिणाम सामने आ रहा है आप सब लोग उससे वाकिफ हैं। इससे अधिक मैं क्या कह सकता हूँ।
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