बिना सहारा किनारा कैसे पाएं!

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शंका

आज मैंने परिक्रमा करके यह महसूस किया कि गुरुवर की तपस्या तो बहुत कठिन है। पद में छाले भी पड़ते हैं, काँटे भी चुभते हैं, फिर भी बाइस परिषह को कैसे सहन कर लेते हैं? आज मैंने आज़माकर देख लिया। हमने सोचा था कि न सहारा लेंगे न किनारा करेंगे। लेकिन पाँच किलोमीटर की दूरी पर हमको सहारा लेना पड़ा। महाराजश्री! बिना सहारे के हम किनारे कब पहुँच सकते हैं?

समाधान

सहारा और किनारा? तैराकी का सहारा लेने वाले को नाव पर बैठना नहीं पड़ता; नौसिखिए सहारा लेने वाले को नाव का इस्तेमाल करना पड़ता है। 

जब आप आईं, उस समय यदि हमारे जैसे कोई मिलते तो कहते कि ‘इतना चल लिए अब पाँच किलोमीटर ही तो है, थोड़ा और दम लगाओ’, तो थोड़ी सी जो लंगड़ी होती है वो तगड़ी हो जाती है। फिर भी आज के समय में इतनी बड़ी परिक्रमा को आप लोगों ने सम्पन्न किया ये बहुत सराहनीय कार्य है आप सब के पुरूषार्थ की जितनी सराहना की जाए वह अच्छा है। 

मैं तो आज के कार्यक्रम के तीन लोगों को “ब्रांड एम्बेसडर” बोलूँगा। एक ८३ साल के दादाजी थे और दो बूढ़ी अम्मा थीं, जिनकी कमर ९० डिग्री झुकी हुई थी। एक अम्मा तो यहाँ से पैदल चलके आईं। मेरे साथ कुछ युवक चल रहे थे उनके हौसले पस्त हो रहे थे। मैंने उनसे कहा कि भैया इनको देखो और चलते जाओ सारा काम हो जाएगा। 

आज की इस पूरी परिक्रमा से आपको इस बात का तो एहसास हो ही जाना चाहिए कि मनुष्य में केवल इच्छाशक्ति होनी चाहिए कोई भी कार्य उसके लिए असम्भव नहीं है। अगर आप इस परिक्रमा का सार्थक लाभ लेना चाहते हो तो मैं कुल इतना ही कहना चाहता हूँ कि जीवन में जब भी कोई दुरूहता आए, उलझन लगने लगे, मन डगमगा ने लगे तो अपने मन में यह ठानो कि ‘नहीं! मैं ऐसा कर सकता हूँ, ये मेरे लिए सहज है। क्योंकि मेरे पास क्षमता है मेरे पास ताकत है’ और आप प्रेरणा पाकर आगे बढ़ेंगे तो असम्भव भी सम्भव कर सकते हैं। परिक्रमा का तो सच्चा लाभ यही है।

आज बहुत सारे लोगों ने परिक्रमा लगाई लगभग हजार से बारह सौ आदमी के करीब। कुछ थक गए, लेकिन मैंने फिर भी देखा कि ८० प्रतिशत लोगों ने अपनी पूरी परिक्रमा पैदल चलकर के की है। और अभी भी कुछ लोग आ रहे हैं। डेढ़ सौ आदमी अभी रास्ते में हैं उनके संकल्प की तो और सराहना करनी चाहिए कि अभी भी उनका मन नहीं थका। चलना है, चलना है, बस चलना है। ठीक है। यही तो उत्साह है, यही उमंग है। ऐसे कार्य करते रहने चाहिए और इन कार्यों में आप लोगों को उन लोगों को धन्यवाद देना चाहिए, जिन्होंने आपके अनुकूल व्यवस्था बनाई। 

कन्हैयालाल जी कह रहे थे कि ‘महाराज हम तो चल ही नहीं पाए।’ हमने कहा जितने चले हैं उन सबका सवा सोलह प्रतिशत तुम्हारे खाते में गया है, व्यवस्था बनाने वाले तो यही हैं। ये थे नंदलाल जी, और एक हमारे कैलास जी हैं जिनको हम ‘चक्कर-घन्नी’ कहते हैं। जो चाहे कह दो और निश्चिंत हो जाओ। सारा काम उनके द्वारा सम्पन्न हो जाता है। ट्रस्ट से जुड़े जितने भी कार्यकर्ता थे और यहाँ के लोग, अभी भी लोगों को रास्ते में सम्बल देकर के ला रहे हैं। आप सभी को उन्हें धन्यवाद देना चाहिए, कि आपकी कृपा से आपके सहयोग से हमारी ऐसी परिक्रमा हो गई; और कहें कि दूसरी बार महाराज जब परिक्रमा में जाने का प्रोग्राम बनाऐं तो हमें जरूर सूचना दें। हम लोग फिर आना चाहेंगे और यह काम करेंगे। निश्चित ही होगा। 

आप लोग सोचते हैं कि परिक्रमा बहुत कठिन है। आज की परिक्रमा में मेरे साथ एक अमित जैन चल रहा था, जयपुर से, विक्रम काला राँची से, तो उन्होंने जीपीएस से पूरा सर्वे कर लिया और बोला कि ‘महाराज! मैं तो मैप बनाकर आपको भेज दूँगा। कोई पचास बावन किलोमीटर नहीं है।’ मैं तो पहले से ही कहता था, छब्बीस किलोमीटर। गुणायतन से निमियाघाट और निमियाघाट से यहाँ तक बारह किलोमीटर है उससे ज़्यादा कुछ नहीं। अड़तीस किलोमीटर की परिक्रमा है। कोई बावन नहीं है, लेकिन थक जाते हैं रास्ता थोड़ा कठिन है। मुझसे कुछ व्यक्ति कह रहे थे-महाराज बड़ा कष्ट है। मैंने उनसे कहा, “भैया! तीर्थयात्रा का कष्ट सहा जाता है कहा नहीं जाता।” सहो, कहो मत, तब तो तुम्हारे कर्मों की निर्जरा होगी। एक बहनजी ऐसी मिली जिनको मैंने कहा कि आप अभी वहीं रूको। मैं रोक कर आया क्योंकि सवा दो बजे मुझे निकलना था। तब निमियाघाट पहुँची और अन्न जल कुछ नहीं लिया। बोली ‘तीन बजे तक का तो मेरा त्याग है, महाराज! उपवास दे दो। मैं उपवास के साथ पूरी परिक्रमा करना चाहती हूँ।’ हमने कहा नहीं उपवास के साथ करोगी तो गड़बड़ हो जाएगा। बोली महाराज मैं चाहती हूँ कि मेरा पुण्य कहीं से कमजोर न पड़े। आप आशीर्वाद दो कि मैं चलूँ। ये भी भावनाएँ हैं मैं उनको निमियाघाट रोक कर आया कि आप कल सुबह और लोग आऐंगे उनके साथ आना चूँकि इतना लेट आने के बाद यहाँ पहुँचना सम्भव नहीं है। तो कहने का मतलब यह है कि मनुष्य के अन्दर का उत्साह हर असम्भव कार्य को सम्भव बना देता है।

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