संयम का पालन करते हुए, गृहस्थी में, असंयमी व्यक्तियों के बीच कैसे निर्वाह करना चाहिए?
संयमी व्यक्ति को सबसे पहले चाहिए कि वो अपने संयम का पालन करे। दूसरी बात-वो अपना संयम, असंयमी जनों पर थोपें नहीं। तीसरी बात- असंयमी को अपने से हीन न मानें, उनकी अवहेलना न करें, उनके प्रति तुच्छता का भाव न रखें। अपितु उनके प्रति उदार और वात्सल्यपूर्ण भावना रखें ताकि उनके मन में आपके प्रति झुकाव हो। अगर आपके प्रति झुकाव होगा तो आपके संयम में सहकारी बनेंगे और केवल क्रिया के संयम में रूढ़ होने की जगह भाव शुद्धि का भी ध्यान रखें। यदि ये चारों बातें आप ठीक ढंग से आत्मसात करेंगे, तो अपने परिवार में पूर्ण आदर प्राप्त करने के अधिकारी बनें।
अक्सर यह होता है कि जो व्यक्ति संयमी होता है वो चाहता है कि ‘जैसा मैं संयमी हूँ, वैसा ही पूरा परिवार संयमी हो जाए।’ अरे! तुम्हारे अन्दर वैराग्य जगा, तुम्हारे अन्दर भावना जगी तो ज़रूरी नहीं कि सभी में ऐसा हो। वो तो अभी बच्चा है, अपना धर्म उस पर थोपो मत और असंयमी को हीन और तुच्छ मत समझो।
एक सज्जन थे, वो व्रती बन गए उस दिन से अपने घर वालों को ‘तू तो बड़ा निकृष्ट जीव हैं, तू तो पापी है, नरक जाएगा’ ऐसा बात-बात पर कहने लगे। तो एक दिन उनके बेटे ने मुझसे शिकायत की, ‘महाराज जी! पापा बहुत बुरा बोलते हैं हमें बुरा लगता है, वो जबसे व्रती बने हैं तो हमें लगता है कि इनका व्रती बनना हमारे लिए बला हो गई।’ मुझे बहुत खराब लगा कि उसने ऐसा बोला। एक बार उस व्रती ने मेरे सामने ही बोल दिया-’महाराज! ये बड़े निकृष्ट हैं।’ हमने कहा “ये निकृष्ट हैं और दस वर्ष पहले तुम कितने उत्कृष्ट रहे होंगे, मुझे भी बता दो, तुम भी तो वही थे। ये भी तो तुम्हारी सन्तान है, तो एक दिन में परिवर्तन कैसे आएगा?” इन सब बातों को बहुत व्यावहारिक तरीके से अपनाकर चलना चाहिए तो ये काम होगा।
ये हुआ संयमी द्वारा असंयमी के प्रति व्यवहार; लेकिन दूसरा पहलू भी खुल जाना चाहिए, नहीं तो मामला तो एक तरफा हो जायेगा। असंयमी का संयमी के प्रति क्या व्यवहार हो? एक असंयमी व्यक्ति है और उसके घर में संयमी हो तो उसको उस बात का गर्व और हर्ष होना चाहिए कि ‘मैं एक ऐसे घर में जी रहा हूँ जिस घर में संयम का अनुपालन करने वाला व्यक्ति है’, और ये अपने मन में सोच लेना चाहिए कि ‘मैं अपने रागवश, दुर्भाग्यवश संयम का पालन नहीं कर पा रहा हूँ, पर मेरे घर में जो संयमी हैं, मैं उनके संयम के अनुपालन में सहयोगी बनूँ तो उसका कुछ न कुछ हिस्सा मेरे हिस्से में आएगा ही।’
घर में बड़े बुजुर्ग की सेवा करना पुण्य है। लेकिन शास्त्र कहते हैं कि हमारे घर में यदि बड़े बुजुर्ग व्रती हैं; तो उस घर में जिस घर में व्रती की सेवा हो रही है उस घर में चौबीस घंटे साता-वेदनी कर्म के पुण्यास्रव का निमित्त बन रहा है, क्योंकि सातावेदनी का बन्ध हो रहा है। तुम उनके संयम में सहायक बनो। उनके लिये कहीं बाधक न बनो और उनसे कहो कि आप जितना कर सको, करो। हमारी कोई त्रुटि हो तो हमें बता दो हम कोशिश करेंगे। हम व्रत नहीं पाल पा रहे हैं। आप तो पालो।
मेरे सम्पर्क में एक युवक है, उनके पिता जी दो प्रतिमाधारी हैं और साल में करीब सत्तर-पिचहत्तर उपवास करते हैं। उनका बेटा कहता है, “महाराज जी! हम तो ये सोचते हैं कि हमारे घर में जो कुछ है वो हमारे पिताजी की कृपा से है। वो चौबीस घंटे माला फेरते हैं, उपवास करते हैं। हम तो पाप करते हैं। हम जो कुछ भी पा रहे हैं उनकी कृपा से पा रहे हैं। हम मन्दिर बाद में जाते हैं, सबसे पहले अपने पिताजी के पाँव पहले छूते हैं। मेरे लिए तो वही भगवान हैं।” ये आदर्श है। यदि ऐसा करोगे तो जीवन धन्य हो जाएगा।
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