आजकल जैन समाज के लोग रात्रि भोजन करते हैं, मद्य-माँस खाते हैं, अष्ट मूलगुण का पालन नहीं करते हैं और उसके बाद भी वो पैसे के जोर पर इन्द्र और इंद्राणी बन जाते हैं, ऐसा क्यों?
हमें अपने कुलाचार का पालन करना चाहिए। धार्मिक आयोजनों में पैसे की अपनी उपयोगिता है लेकिन कम से कम व्यक्ति का मूल आचार की शुद्धता तो देखनी चाहिए। जिस भी व्यक्ति को आप किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में शामिल करते हैं उसका सकलीकरण होता है और सकलीकरण की अवधि में उसको बहुत सारी चीजों का परित्याग कराया जाता है, तो उसका परित्याग कराना चाहिए। मेरा अपना एक अनुभव है, यदि हम ये कहें कि जो इन विषयों में लिप्त हैं उनको धार्मिक आयोजनों में शामिल न किया जाए तो ये गलत है। फिर वे सुधरेंगे कब?
मेरा अनुभव बताता है कि ऐसे बहुत से लोग मेरे सम्पर्क में आए जिनका पिछला अध्याय विकृत रहा। वे विषयों में पारंगत रहे लेकिन निमित्त पाकर धार्मिक आयोजनों की प्रभावना को देखकर उसमें शामिल होने का मन बनाया। एक व्यक्ति है मेरे सम्पर्क में; नाम नहीं ले रहा हूँ, वह सौधर्म इन्द्र बना और जिस दिन सौधर्म इन्द्र बना उसके एक दिन पहले तक शराब पिया। बोली हो गई। मैं उससे परिचित नहीं था, बोली होने के बाद आपस में खुसर-पुसर होने लगी। मुझे लोगों ने बताया कि ये तो शराब पीता है, इसे कैसे सौधर्म इन्द्र बना दिया गया? मैंने उसे एकांत में बुलाया और बताया कि -“आज तेरा कितना बड़ा पुण्य जागा है, आज तूने उस दुर्लभ अवसर को प्राप्त किया है जो अच्छे अच्छों को नहीं मिलता है। सौधर्म इन्द्र क्या होता है, तू इसे समझ। वो इन्द्र जो पूरे स्वर्ग के इंद्रों का मुखिया बनकर भगवान के कल्याणक को सम्पन्न कराता है। जिसके बिना भगवान के पंचकल्याणकों की कोई क्रियाएँ संपन्न नहीं होतीं, आज तुझे वो इन्द्र बनने का सौभाग्य मिला है। तेरे हाथ में एक सुंदर रत्न आया है, इसे धूल में मत मिला। इसका सही मूल्याँकन कर, इसका उपयोग कर और ऐसा भाव बना कि -आज मैं बोली लेकर सौधर्म इन्द्र बना हूँ, मेरा ऐसा पुण्य जागृत हो कि साक्षात् सौधर्म इन्द्र के स्वरूप को में प्राप्त कर सकूँ।” मैंने उसे बहुत अच्छे तरीके से motivate किया और मैंने उससे कहा कि-इस घटना को तू अपने जीवन की टर्निंग प्वाइंट मान ले और तेरे नाम को लेकर जो प्रतिक्रियाएँ हुई है उसको लेकर कहीं नकारात्मक मत सोच। ये सोच कि ये तेरे शुभचिंतक हैं और आज से प्रतिज्ञा कर, तिलांजलि दे दे इसको।
मेरी प्रेरणा से उस व्यक्ति ने उसी दिन से शराब का त्याग किया। उसने त्याग क्या किया, सौधर्म इन्द्र बनने के बाद ऐसा पुण्योपार्जन कर लिया कि उसके जीवन की धारा परिवर्तित हो गई। आज वो अष्टमी, चतुर्दशी को एकासन या उपवास भी करता है और शुद्धाचार्य बन गया। मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ कि व्यसनी लोगों के धार्मिक आयोजनों में रोक लगा दी जाए। नहीं! धार्मिक आयोजनों में जुड़ने वालों को ऐसी प्रेरणा दी जाए कि वे विषयों में रोक लगा दें ताकि उनका जीवन परिवर्तित हो जाए। व्यसन पर रोक लगनी चाहिए, व्यसनी पर नहीं! रोग की चिकित्सा होनी चाहिए, रोगी की नहीं! पाप से घृणा करनी चाहिए, पापी से नहीं!
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