बाहर रहकर हम धर्म नहीं सीख पाते, क्या करें?
मेरा तो ये विचार है कि धर्मी जहाँ तक फैल सकें फैलें और अधर्मी जितना सिमट सकें सिमटें। आज भारत से बाहर जैन धर्म को पहुँचाने में तुम लोगों का ही तो योगदान है। हम साधु लोग तो वहाँ जा ही नहीं सकते हैं। कम से कम तुम जैन धर्म को represent तो करते हो। अच्छा है! जाओ, दूर-दूर देशांतरों में बसो; लेकिन एक सावधानी रखकर। वहाँ जाकर बसो और अपनी मौलिकता को बचा कर रखो। खुद में अपने संस्कार सुरक्षित रखो और अपने बच्चों को भी मजबूत संस्कार दो और समय-समय पर स्वदेश आकर अपनी बैटरी को रीचार्ज कर लो ताकि तुम मूल से जुड़े रहो। गड़बड़ कब होता है जब वहाँ जाकर लोग वहीं के हो जाते हैं।
मेरे सम्पर्क में दोनों तरह के लोग है। वहाँ रहकर १०-१० उपवास करने वाले लोग भी हैं। खूब धर्म ध्यान करने वाले लोग भी हैं। अपवादिक रूप से ऐसे भी कुछ लोग हैं जो वहाँ गये और वहीं के हो गये। ये एक प्रकार का accident है। इससे बचो, सावधान रहो और खूब धर्म को फैलाओ बशर्ते हमारे अन्दर की धर्म निष्ठा गहरी हो। अपने बच्चों को भी उतनी ही मजबूती दो जितना कि तुम्हें तुम्हारी माँ ने दिया है।
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