डॉक्टर होते हुए मैं अपने व्यवसाय में और अपने धर्म में किस प्रकार सामंजस्य बिठा सकता हूँ?
धर्म का सम्बन्ध अपनी personal life (निजी जिंदगी) से है और व्यवसाय का सम्बन्ध प्रोफेशनल लाइफ से है। लेकिन आपका जो प्रोफेशन है, उस प्रोफेशन में भी आपका धर्म है। आप डॉक्टर हो। डॉक्टर के पास व्यक्ति अपने जीवन की भीख लेकर जाता है। उस समय यदि कोई patient (मरीज) आता है, तो उसके जीवन रक्षा के लिए सार्थक प्रयत्न करना का धर्म कहलाता है। इसलिए मैं सलाह दूँगा कि आप अपनी धार्मिक क्रियाओं को करें, पर कभी अपने घर से मन्दिर के लिए निकल रहे हों और आपको खबर आए कि कोई पेशेंट (मरीज) सीरियस (गंभीर स्थिति) है, जिसके जीवन मरण का सवाल है, तो उस पेशेंट की सेवा भगवान की पूजा मानकर कर लेना। वो भी उस समय तुम्हारा प्रोफेशनल (व्यवसाय जनित) धर्म हो जायेगा। उस समय तुम्हारा यही कर्तव्य है। ये नहीं कि ‘मुझे पूजन करना जरूरी है, तो मैं पहले पूजन करूँ, बाद में पेशंन्ट देखू। ये बात उचित नहीं है।
भगवान की पूजा का अर्घ्य दो घंटे बाद चढ़ जाये तो भगवान को फर्क नहीं पड़ेगा। पर पेशंन्ट की नब्ज़ पहचानने में दो सेकेंड का भी विलम्ब हो जाये, तो शायद पेशंन्ट ही हाथ से निकल जाये। इसलिए वो तुम्हारे लिए जरूरी है उसका निर्वाह करो।
एक चिकित्सक ने मुझसे ऐसा कहा था- ‘महाराज! हम ऐसा करें तो यह तो रोज का काम है। हम लोग तो अपना धर्म ध्यान ही नहीं कर पायेंगे।’ हमने कहा- नहीं, आपकी ये जो चिकित्सीय क्रिया है ये एक सेवा है। आयुर्वेद के शास्त्रों में चिकित्सक को भगवान का प्रतिनिधि कहा है। आज के युग में चिकित्सक, चिकित्सा और मरीज इन तीनों की स्थिति खराब हो गई। पुराने जमाने में चिकित्सक को भगवान माना जाता था। चिकित्सा बड़े मानवीय तरीके से होती थी। उस समय चिकित्सा एक सेवा की पर्याय थी। आज चिकित्सा शुद्ध व्यवसाय हो गया, व्यवसाय नहीं एक उद्योग बन गया और फिर मरीज एक मरीज न रहकर, एक ग्राहक (कंज्यूमर) बन गया। तो मामला सब लड़खड़ा गया। इससे गड़बड़ हो जाता है। जबकि हमें वो तीनों चीजें देखनी चाहिए।
मैं आपसे और आप जैसे जितने चिकित्सक आज के कार्यक्रम में शामिल होंगे उनसे मैं कहना चाहता हूँ कि आप अपने धार्मिक क्रियाकलापों का तौर-तरीका थोड़ा परिवर्तित कर दें। आप एक चिकित्सक होने का धर्म पहले निभाएँ। उसके बाद आप अपने धर्म ध्यान के लिए समय निकालें। हो सके तो आप अपने साथ कुछ कनिष्ठ सहयोगियों को रख लें, जो आपकी अनुपस्थिति में इस तरीके से कार्य कर लें, और बाकी समय निकाल कर आप खुद अपना कार्य करें, समय का एडजस्टमेंट करते हुए।
दूसरी बात आप अगर उनको धर्म से जोड़ना चाहते हैं तो जब भी चिकित्सा करें णमोकार जपते हुए करें और धर्म की प्रभावना करने के लिए अपने मरीज को साइंटिफिक तरीके से ऐसी प्रेरणा दें, जिससे कि वह मद्यपान और माँसाहार से मुक्त हो जाए। शाकाहारी हो जाये। ये भी आपका धर्म है। आपको धर्म करने के पर्याप्त अवसर हैं। धर्म करने का मतलब मुनियों को आहार देना ही नहीं, धर्म करने का मतलब भगवान का अभिषेक करना ही नहीं और धर्म करने का मतलब केवल व्रत और उपवास करना ही नहीं। धर्म करने का मतलब है अहिंसा को आत्मसात करना और उस अहिंसा धर्म को जन-जन तक पहुँचाना, ये एक धर्म है। यदि आप इसे अपनाते हैं, तो निश्चित आप अपने इस व्यवसाय में रहते हुए भी बहुत पुण्य का उपार्जन कर सकते हैं। इसके साथ एक्चुअल (वास्तविकता) में कोई गरीब पेशंन्ट आता हो तो आप उनको जितनी रियायत दे सको दो। ये कोशिश करो। ये एक चैरिटी है। बहुत बड़ा काम है, और इसके साथ अनावश्यक जाँचे न कराए। अनावश्यक दवाईयाँ न थोपें।
एक डॉक्टर बोला आजकल डर लगता है। हमारा clinical experience (डॉक्टरी पेशा का अनुभव) कहता है कि इन जाँचों की जरूरत नहीं है। फिर भी न चाहते हुए भी जाँचें करानी पड़ती हैं। ‘क्यों?’ क्योंकि डर रहता है कि जो पेशेंट है वो कहीं कंज्यूमर फोरम में न चला जाये? कहीं उल्टा सीधा न हो जाये? तो मैं पेशेंट को भी बोलना चाहता हूँ कि चिकित्सक को देखते हुए काम करो। यदि चिकित्सक सही है, तो चिकित्सक के ऊपर कभी भी दोषारोपण न करो। अपना भाग्य है। चिकित्सक भगवान नहीं है, वो चिकित्सक है बस ये ध्यान रखना। वह अपनी जान लगा सकता है, पर तुम्हें जिंदा रखने की ताकत चिकित्सक के पास भी नहीं है। वो ताकत तुम्हारे आयु कर्म के पास है।
ये मरीज को भी चाहिए कि वो चिकित्सा के इस व्यवसाय में इस स्तर से नीचे न आये कि वो मनुष्य कहलाने के लायक भी न रहे। बहुत सारे ऐसे चिकित्सकों के मामले हमारे पास आये हैं, जिन्होंने सब्ज़ी बेचकर जीविका पालने वाले लोगों के लिए भी ऐसी-ऐसी जाँचे लिखवा दी, जिसको वो अपना सब कुछ बेचकर के भी नहीं करवा सके। ये सब चींजे ठीक नहीं। इनमें बहुत हाय लगती है और ये पाप लगता है। तो इससे बच के रहना चाहिए।
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