छोटा मंदिर-बड़ा मंदिर का मतभेद क्यों?

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शंका

कई जगह ‘बड़ा मन्दिर, छोटा मन्दिर’, ‘बड़े महाराज जी, छोटे महाराज जी’ कहते हैं ऐसा मतभेद क्यों है?

समाधान

मन्दिर में मतभेद नहीं है, मन्दिर वालों में मतभेद है। भगवान न बड़े होते हैं न छोटे। मन्दिर न बड़ा होता है न छोटा; मन्दिर तो मन्दिर होता है। भगवान की मूर्ति भले छोटी हो लेकिन भगवान तो भगवान हैं। ये लोग हैं मन्दिर वाले, वो बँटे हुए हैं और जब लोग आपस में बँटे है, तो भगवान को भी बाँट देते हैं ये तो बड़ी विचित्रता है। भक्त बँटते हैं तो भगवान भी बँट जाते हैं। लोग कहते हैं कि भगवान को बाँट लिया? अरे भगवान के नाम पर भक्त बँट गये। और आज कल ऐसा ही हो रहा है मामला बड़ा गड़बड़ हो रहा है। ऐसा कभी नहीं होना चाहिए। बड़ा मन्दिर और छोटा मन्दिर का भेद नहीं होना चाहिए। ये बात स्वाभाविक है कि जो व्यक्ति जिस मन्दिर में पूजा अर्चा करता है उस मन्दिर के प्रति उसका झुकाव ज्यादा होता है। ये बात अलग है कि उसके प्रति एक दूसरे के मन में भेद हो जाना कि ‘उस मन्दिर के प्रति तुम्हारा झुकाव ज्यादा होता है, तो तुम उस मन्दिर वाले हो, मैं इस मन्दिर वाला हूँ।’ ये सब चीजें ठीक नहीं हैं। इन सब से बचना चाहिए। इसका सबसे अच्छा उपाय तो ये है कि समाज के सारे मन्दिर एक पंचायत के अन्तर्गत हों। तो झगड़ा ही खत्म हो जाए। ये मन्दिर, वो मन्दिर, ये मन्दिर, वो मन्दिर? ‘थारे-मारे’ की जब तक प्रवृत्तियाँ हैं तब तक भगवान ही नहीं बचेंगे। भगवान ऐसे लोगों से बचाएँ।

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