जैन परम्परा में सामायिक, पूजन, उपवास, व्रत का काफी प्रचलन है, योग और प्राणायाम का नहीं। यदि योग और प्राणायाम का प्रचलन इसमें जोड़ दिया जाए तो साधक अधिक स्वस्थ रह सकता है। साधक स्वस्थ रहेगा तो साधना भी बहुत अच्छे तरीके से कर सकता है। मैं जानना चाहता हूँ कि क्या ये कार्य उचित नहीं है कि प्राणायाम के साथ-साथ योग भी हो।
जैन परम्परा में उपयोग-शुद्धि पर बल दिया है, योग शुद्धि पर नहीं। इसलिए जो हमारी साधना है, उसमें ध्यान को ज्यादा महत्त्व दिया गया है। इसमें प्रारम्भ में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान, धर्म, समाधि आदि हैं। उसमें आसन आदि को उतना महत्त्व नहीं दिया है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आसन का निषेध है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए योगासन बहुत जरूरी है। तन स्वस्थ्य रहेगा तभी मन स्वस्थ्य होगा। इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वो आसन लगाने की प्रक्रिया में भी अपनी रूचि लेकर के चले। आसन लगाकर के चले। ‘असन’ का भाव ‘आसन’ है। ‘असन’ यानि भोजन, भोजन किया है, तो आसन जरूर लगाओ, ताकि हमारा शरीर बिल्कुल दुरुस्त रहे, और आसन की शुद्धि में ही ध्यान की शुद्धि में सहायता होगी। इसलिए भी सारे व्रतियों को और त्यागियों को इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यदि वे नियमित योगासन आदि लगाएँ तो साधना ज्यादा अच्छे तरीके से कर सकते हैं और लम्बी साधना भी कर सकते हैं।
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