क्या पुण्यतिथि मनाना जैन धर्म में सही है? यदि सही है, तो उस आत्मा की शांति के लिए क्या करें?
पुण्यतिथि आप लोग बोलते हो इसका मतलब क्या हुआ? कोई आदमी मर गया। उसका वह दिन क्या आपके पुण्य का उदय है? क्या मतलब है पुण्यतिथि का? वो मरा व्यक्ति आपके लिए पुण्य का कारण बना? आपके पुण्य के उदय से मरा? जो आदमी मरा वो अपने पुण्य के उदय से मरा। कैसे मरा? पुण्य के उदय से मरा या पाप के उदय से मरा? आयु का नाश पाप के साथ ही होता है। आयु कर्म हम लोगों के लिए पुण्य प्रकृति है। आयु कर्म का क्षय हुआ यानि पाप का उदय आया। पाप के कारण मरा या पुण्य के कारण मरा? तो वो पाप तिथि है या पुण्यतिथि? आप पाप तिथि को पुण्यतिथि कह रहे हो। जिसके मूल में ही भूल है, वो कहाँ से अच्छा होगा?
क्यों मनाते हैं पुण्यतिथि? कोई पुण्य का कार्य करो, जिस तिथि में कोई पुण्य की घटना घटे, या जिस तिथि में कोई पुण्य का कार्य हो, उसे ही तो पुण्यतिथि कहोगे। किसी की मृत्यु को आप पुण्य मानते हो? इसका मतलब ये है कि रोना एक दिखावा है, ‘अन्दर से खुशी है कि चला गया, बला टली’- ये रूढ़ी है। किसी की पुण्यतिथि तो सच्चे अर्थों में यह है कि, उस व्यक्ति की मृत्यु को पुण्यतिथि मानो जो सल्लेखना पूर्वक देह का त्याग करे। जो साधु बनकर के समाधि करता है। जो समाधि पूर्वक देह छोड़ता है। उसका मरण तो पुण्य मरण कहला सकता है। बाकी सब का मरण बाल-बाल मरण है। ये पाप मरण है। इसलिए तो मेरी दृष्टि में तो वो पुण्यतिथि है ही नहीं, पाप तिथि है। इसलिए पाप तिथि मनाने से मतलब नहीं है।
तो क्या करो? पाप तिथि जब भी याद आये तो पुण्य का काम करो। पाप तिथि आये और मन में सन्ताप लाये, व्याकुलता होने लगे, मन अशांत होने लगे तो आप पुण्य का कार्य कर सकते हो। अब आपने पूछा कि उसी दिन करें क्या? अगर उस पाप का सन्ताप है, तो भगवान का स्मरण करो और सन्ताप नहीं है, तो रोज करो क्या बुराई है? उस दिन करना कोई जरूरी नहीं है लेकिन अगर लोग ये सोचते हैं कि मैं अपने पिताजी, माताजी, भाई, बहन, पत्नी की मृत्यु को पुण्यतिथि मनाकर् विधान करता हूँ और ये सोचता हूँ कि यहाँ विधान करूँगा तो उनको शांति मिलेगी तो ये भ्रम है। उसको कहीं शांति नहीं मिलने वाली है। वो तो गये। आपसे उनका कोई कनेक्शन ही नहीं है। वो तो उसका जो होना था उसका वो हो गया।
आप अपनी अशांति के निवारणार्थ भगवान की पूजा अर्चा करते हो, अपने पाप भावों का शमन करने के लिए भगवान की पूजन अर्चन करते हो, वैराग्य भाव से ओत-प्रोत होकर अपने मन को स्थिर बनाने के लिए पूजन अर्चन करते हो तो कोई बुराई नहीं। लेकिन उनकी आत्मा को शांति मिले इस भाव से आप करते हो तो मामला गड़बड़ है। समझ गये? तो ऐसी शांति से कोई मतलब नहीं है। इसलिए मैं तो कहता हूँ पुण्यतिथि है ही नहीं। कौन सी तिथि है? पापतिथि है। पाप तिथि को याद ही मत कीजिए। भूल जाओ। क्योंकि जितना विरह और व्याकुलता का भाव होगा उतना असाता वेदनीय कर्म का बन्ध होगा। विरह और व्याकुलता दुःख है, शोक है, उस दुःख और शोक की स्थिति में पाप का ही बन्ध होगा। असाता का ही बन्ध होगा। तो आसाता ने ही विरह, व्याकुलता और वेदना प्रकट की, तथा उससे और अधिक व्याकुल होकर, और अधिक असाता का बन्ध कर लिये? मामला गड़बड़ है इसलिए ऐसी पुण्यतिथि मनाने से कोई मतलब नहीं है। पाप तिथि है उस पाप से बचने के लिए, पाप के सन्ताप के लिए, पुण्य अनुष्ठान करने में कोई बुराई नहीं है।
उद्देश्य ये हो कि मैं अपने पाप की निर्मलता के लिए, भगवान की पूजा आराधना कर रहा हूँ। भगवान की पूजा की, आराधना की, तो कुछ सोचना ही नहीं चाहिए। कोई भी बहाना ढूढंकर भगवान की पूजा कर लो कोई बुराई नहीं है, लेकिन पूजा करना भगवान की, किसके लिए? अपने लिए। ये ध्यान में रखकर के चलेंगे तो सारे कार्य स्वतः समाहित हो जायेंगे। धार्मिक अनुष्ठान यहाँ करोगे तो उसको वहाँ शांति कैसे मिलेगी?
ऐसा हुआ कि एक सन्त गंगा के किनारे गये। देखा तो लोग सूर्य को जल दे रहे थे। बोले सूर्य को जल क्यों कर रहे हो? लोग बोले कि, ये जो जल यहाँ दे रहे हो, वहाँ पहुँच जायेगा। तो उन्होंने क्या किया? गंगा के विरूद्ध दिशा में तट की तरफ पानी निकाल-निकालकर हाथों से फेंकना शुरू कर दिया। जब पानी उलीच-ऊलीच के फेंकना शुरू किया तो, लोगों ने कहाँ कि भैया ये क्या कर रहे हो? बोला कि मैं जिस देश से आया हूँ वहाँ पानी का नितांत अभाव है, कई सालों से सूखा मचा हुआ है। लोग एक-एक बूंद पानी के लिए परेशान हैं, तो मैं पानी यहाँ से वहाँ भेज रहा हूँ।
लोगों ने बोला कि ‘हद हो गई तुम्हारी अंजुली में कितना पानी आता है? यहाँ का पानी वहाँ कैसे पहुँचेगा?’ बोले कि ‘यहाँ का पानी स्वर्ग तक पहुँच सकता है, तो हमारे देश तक क्यों नहीं पहुँचेगा?’ तब लोगों को समझ में आया कि, उस जीव से तुम्हारा कोई कनेक्शन नहीं हैं। मैं भोजन करूँगा तो तुम्हारा पेट नहीं भरेगा। जो करता है वही भरता है। वो कर के चला गया तुम अपने लिए करो।
इसलिए मैं तुमसे भी बोलता हूँ कि अपने बच्चों के लिए इतना मत छोड़ो कि मरने के बाद वो पुण्यतिथि मनाये, तुम्हारी शांति के लिए। तुम्हें अपनी शांति चाहिए तो अपने साथ लेकर जाओ जितना लेकर जा सको। अपने द्वारा अर्जित करो। तुम्हारे द्वारा किया गया कृत कर्म ही तुम्हारे लिए सहारा बनेगा। दूसरे के द्वारा किया गया कृतकर्म तुम्हारे लिए कभी सहायक नहीं बनेगा। इस भाव को ध्यान में रखकर के काम करना चाहिए।
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