ईर्ष्या-द्वेष और मायाचारी के वशीभूत होकर के दिया हुए आहार दान का भावों पर क्या प्रभाव पड़ता है।
दूषित भाव और अशुद्ध अवस्था में आहार देने से साधु पर बहुत उल्टे असर पड़ते हैं। मन में संकल्प रखो कि मुझे किसी से बैर की गाँठ नहीं बाँधनी है, उसके दुष्परिणाम आते हैं।
एक रानी की कथा आती है जिसने अशुद्ध अवस्था में मुनि महाराज को आहार दिया तो उसे कुष्ठ रोग हो गया। दूषित भाव से आहार देने का क्या दुष्परिणाम होता है, जिनेन्द्र वर्णी का एक कैसेट मैंने सुना था, अच्छे भाव और बुरे भाव के आहार दान पर प्रभाव।
एक मासोपवासी मुनिराज थे। एक माह के उपवास के उपरान्त वे आहार के लिए निकले पूरे नगर में चौके लगे। बड़े-बड़े सेठों का और सभी लोगों का ये विचार और भाव था कि ‘महाराज का आहार हमारे यहाँ होगा…. हमारे यहाँ होगा…..।’ और सभी ने अपने अपने तरीके से उत्तमोत्तम प्रबन्ध भी कर रखे थे। उस पूरे नगर में एक वृद्ध महिला भी थी जो अकेली थी और नगर के बाहर एक टूटी सी झोपड़ी में रहा करती थी। उसके मन में एक ही उमंग और भावना थी कि महाराज का कहीं भी आहार हो, अच्छे से आहार हो जाए। वो जाकर एक-एक के घर में बोलती थी- ‘आज तेरे यहाँ महाराज का आहार होगा। ध्यान रखना कि कहीं अन्तराय न हो जाए?’… ‘तेरे यहाँ महाराज का आहार होगा। ध्यान रखना कि कहीं अन्तराय न हो जाए’,………। कुछ गड़बड़ न हो जाए इस बात का पूरा ध्यान रखना है। एक-एक के घर वो पागलों की तरह बोलती। इधर से उधर और उधर से इधर। महाराज के आहार को निकलने से १ घंटे पहले से उसका यही कार्यक्रम चल रहा था। एक-एक के घर जाकर बार-बार यही बोल रही थी।
मुनिराज समय पर आहार चर्या के लिए निकले। पूरी बस्ती का राउंड लगा लिया, पर कहीं उनका पड़गाहन नहीं हुआ। बस्ती के अन्तर छोर पर उस बुढ़िया की झोपड़ी थी। महाराज जब वापस लौटने लगे तो वो बेचारी बुढ़िया दोनों हाथ जोड़कर एक किनारे खड़े होकर “हे स्वामी! नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु……….। बोलने लगी।” और बुढ़िया ने जैसे ही ‘नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु’ की पुकार लगायी, महाराज उसके सामने आकर के खड़े हो गये। आकाश से पंचाश्चर्य की वृष्टि होना शुरू हो गयी। जय जय ध्वनि हो गयी। उसके पांव तले जमीन खिसकने लगी। उस बुढ़िया ने भक्ति भाव से महाराज का पड़गाहन किया और घर में ले गयी। क्या खिलाए? घर में कुछ है नहीं? उसके घर में एक बोतल में सरसों थी और उसमें पानी डाला हुआ था। वो किसी प्रयोजन से रखी होगी, उसने महाराज को वही सरसों और पानी दे दिया। महाराज ने उसे सहज भाव से उसे ग्रहण कर लिया। एक मास के उपवास के बाद सरसों और उसके पानी से उनकी पारणा हुयी। पंचाश्चर्य की वृष्टि हुई। लोगों में जय-जयकार हुआ। बुढ़िया धन्य-धन्य हो गयी और गाँव वालों ने सोचा कि ‘बुढ़िया ने क्या खिलाया महाराज को?’ देखा तो महाराज ने सरसों और पानी लिया। तो सब ने सोचा कि ‘अच्छा! महाराज को सरसों पसन्द है।’ मूल बात जिस प्रयोजन से मैं ये कहानी सुना रहा हूँ, अगली बार जब महाराज आहार को निकले, तो लोगों ने सरसों में पानी डाल कर रखा और एक माह के उपवास के बाद महाराज जी आये तो वही सरसों पानी के साथ दिया, महाराज का पेट कट गया, महाराज की समाधि हो गयी।
इसलिए अच्छे भाव से दोगे तो जहर भी अमृत हो जायेगा और बुरे भाव से दोगे तो अमृत भी जहर बन जायेगा। अतः जीवन में कभी ऐसा कार्य न करना। ईर्ष्या, मात्सर्य, द्वेष, मायाचारी, छल-कपट के साथ दान देने वाले कुभोग भूमि के पात्र होते हैं, और साधु के रत्नत्रय की विराधना हो सकती है। तुम्हारा जीवन भी विकृत हो सकता है। इसलिए इन बातों की बहुत गहराई से विवेचना होनी चाहिए, समीक्षा होनी चाहिए, विचार होना चाहिए।
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