सफल मनुष्य और जागरुक नागरिक कैसे बनें?

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शंका

एक सफल मनुष्य और जागरूक नागरिक बनने के लिए हमें क्या प्रयास करने चाहिए?

समाधान

बहुत अच्छा प्रश्न किया है। सफलता का मतलब क्या है? आज लोक में सफल होने का मतलब लोग यही समझते हैं जो अच्छी दौलत पा ले, अच्छी शोहरत पा ले, अच्छी सेहत पा ले; वह व्यक्ति सफल माना जाता है। लेकिन सफलता का मतलब कोरी यह दौलत, शोहरत और सेहत को प्राप्त करना नहीं है। 

सफल शब्द का अर्थ क्या है पहले इसे जाने। धरती में बीज बोते हैं, बीज बोने पर वह अंकुरित होता है, पल्लवित होता है, पुष्पित होता है, उसमें फूल और फल लगते हैं, तब जाकर वह बीज सफल हो पाता है। जब बीज विकसित होकर फलवान बनता है, तब बीज सफल होता है। इसी सफल से शब्द बना है फसल, जो फिसल करके बना है। फसल होना माने बीज की सफलता। तो बीज की सार्थकता उसके फलवान बनने में है, और मनुष्य जीवन की सार्थकता मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा में है। सबसे पहली जीवन की प्रतिष्ठा की प्रतिमा बाहरी सम्पन्नता को न बनाकर आन्तरिक प्रसन्नता को बनाना चाहिए जो हमारे भीतर हमारे जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा के उपरान्त से ही सम्भव है। इस के लिए क्या करें? 

सबसे पहली आवश्यकता अपना नैतिक, चारित्रिक और भावनात्मक विकास करें, जिससे हमारे जीवन में उदात्त जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा हो और हम आध्यात्मिक आधार लेकर अपने जीवन का उत्कर्ष कर सके। और फिर बाहर जिसे सफलता के रूप में कहा जाता है. धन पैसा कमाना, प्रतिष्ठा पाना, ठाट बाट पाना, यह बाहरी चीजें हैं। लोग इसे पाए निश्चित पाए। मुझे उससे कोई एतराज नहीं और मनुष्य के जीवन के निर्वाह के लिए इनकी भी जरूरत है। लेकिन केवल बाहरी सफलता सफलता नहीं, बाहर की सफलता के साथ-साथ भीतर की भी सफलता होनी चाहिए, जो मनुष्य को अन्दर से मजबूत करें। 

मेरे सम्पर्क में ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने कथित तौर पर सफलता के शिखर को छुआ। बहुत छोटी उम्र में बहुत पैसा कमाया, प्रतिष्ठा भी पाई। लेकिन जब उन्होंने अपना रोना रोया और यह कहा कि हम अपने जीवन में फिसल गए, बाहर से तो मजबूत हो गये पर अन्दर से टूटे। उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन को मैनेज नहीं कर पाये, उनका दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं रहा, उनका स्वभाव, उनका भाव, उनका बर्ताव बड़ा विचित्र रहा। आपस में तालमेल बनाकर नहीं चल सके। तो जीवन में सब कुछ पाने के बाद भी कई लोगों ने मुझसे कहा कि ऐसा लगता है कि जैसे हमने अपने जीवन को व्यर्थ खो दिया। लेकिन सबसे बड़ी विडम्बना है कि इस बात की अनुभूति बहुत विलम्ब से होती है जब वह अपना बहुत कुछ गवा देता है। मनुष्य की एक ऐसी अवधारणा बनी है कि हम बाहर से जितना जोड़ देंगे उतना हमारे जीवन की सार्थकता होगी। केवल बाहर के संसाधनों को जोड़ने से जीवन की सार्थकता नहीं। बाहरी सम्पन्नता के साथ आन्तरिक मजबूती भी जरूरी है जो अध्यात्म निष्ठा के बल पर होती है, वह धर्म के आचरण से होती है। तो मनुष्य के जीवन में वह धर्म का पुट भी होना चाहिए। 

आप बाहर से कितने सफल, मैं नहीं जानता, पर भारतीय संस्कृति में जीवन का सार निरूपित करते हुए कहा –

शान्तं तुष्टं पवित्रं च सानन्दं इति तत्त्वतः जीवनं जीवनं प्राहो भारतीय सुसन्कृतौ।

जिसके जीवन में शांति हो, पुष्टि हो, पवित्रता हो और आनन्द हो; भारतीय संस्कृति में उसके ही जीवन को जीवन कहा गया है। 

महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि तुम्हारे पास कितना पैसा है, महत्त्वपूर्ण यह है कि तुम्हारे पास कितनी प्रसन्नता है। महत्त्वपूर्ण यह नहीं कि तुम्हारी कितनी प्रतिष्ठा है, महत्त्वपूर्ण यह है कि तुम्हारे अन्दर कितनी पवित्रता है। महत्त्वपूर्ण यह नहीं कि तुम्हारे पास कितना ठाट है, महत्त्वपूर्ण यह है कि तुम्हारे अन्दर कितना आनन्द है। महत्त्वपूर्ण यह नहीं कि तुम्हारे पास कितना अक्षय कोष है, महत्त्वपूर्ण यह है कि तुम्हारे मन में कितना सन्तोष है, तो शांति, सन्तोष, पवित्रता और आनन्द जैसे मूल्यों को अपने जीवन में प्रतिष्ठित करने वाला व्यक्ति सच्चे अर्थों में सफल व्यक्ति की श्रेणी में गिना जा सकता है।

रहा सवाल एक अच्छे नागरिक का, तो एक अच्छा नागरिक वही होता है जिसके जीवन में राष्ट्रीय चरित्र हो, जो अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित हो और अपनी नागरिकता की कसौटी पर खरे उतरते हुवे, ऐसा कोई कृत्य न करें जो देश, समाज और व्यक्ति को कोई नुकसान पहुँचाता हो। सबको साथ लेकर सबका साथ देकर चले वही अच्छा नागरिक। और अगर हम भगवान महावीर की भाषा में कहें तो केवल एक पंक्ति में इतना कह सकते हैं, जो मनुष्य जियो और जीने दो की उक्ति को चरितार्थ करता है वही सच्चे अर्थों में एक श्रेष्ठ नागरिक बन सकता है।

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