चरित्र निर्माण में पूर्व जन्म के संस्कारों का प्रभाव!

150 150 admin
शंका

जब किसी परिवार में कोई नया जन्म होता है तो वह आत्मा बिल्कुल कोरी होती है। हम कहते हैं कि ‘बच्चे का जन्म हुआ है, जैसा हम उसे ढालेंगे बिल्कुल वैसा ढल जाएगा।’ पर वह आत्मा उसके साथ पूर्व संस्कार लेकर आती है। जैसे- कहीं पर एक्सीडेंट हुआ, बहुत सारे लोगों की एक साथ मृत्यु हुई। जिन लोगों ने वो हादसा देखा वो अभी तक सामान्य नहीं हो पाए हैं। उनकी अभी तक counselling हो रही है। जिस आत्मा का घर में जन्म हुआ है उसके लिए हम सोचते हैं कि उसे अपने संस्कार दें, लेकिन एक बच्चा १० साल का है वह अभी तक डर रहा है। एक घर में दो बच्चे हैं, एक कहीं से आया, एक कहीं से आया ऐसे में हम उसके पूर्ववत संस्कार और अपनी परवरिश का सामंजस्य कैसे बैठाएँ?

समाधान

हमारे व्यक्तित्त्व के निर्माण में विज्ञान के हिसाब से अनुवांशिक गुणों और वातावरण का महत्त्वपूर्ण रोल है। हम अगर जैन तत्त्वज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो अनुवांशिक गुण हमारे कर्मों के साथ भी जुड़े हुए हैं। अनुवांशिक असर तो है ही लेकिन उसके साथ पूर्व जन्म के कर्म संस्कार का बहुत महत्त्वपूर्ण रोल होता है। इसका ही यह परिणाम है कि एक माता-पिता की दो सन्तान अलग-अलग दिशा में चले जाते हैं। मैं ऐसे माता-पिता को भी जानता हूँ जिनके एक सन्तान मुनि है और दूसरे भाइयों का कई बार ‘जिला बदल’ हो चुका है, वो बड़े बदमाश, अपराधी है; तो इसमें माँ-बाप की क्या भूमिका? माँ-बाप की जितनी भूमिका है सो है, उस जीव के पूर्व जन्म का संस्कार भी उसमें महत्त्वपूर्ण रोल रख रहा है। 

आपने जो कहा कि किसी की दुर्घटना में मृत्यु हुई तो हो सकता उस मृत्यु के संस्कार उस आत्मा में जुड़े रहे और भवान्तरों में उसे भयभीत करते हैं, जैन कर्म सिद्धान्त इस को स्वीकार करता है। इसमें कोई आश्चर्य जैसी बात नहीं, ऐसा होता है, जिस जीव के जैसे परिणाम होते हैं, जैसे संस्कार होते हैं, उसके वैसे भाव होते हैं। 

हम कंस के जीवन को देखें, वह क्रूर क्यों बना? उसके पूर्व जन्म को हम देखें, पूर्व जन्म से ही उसके अन्दर क्रूरता भरी हुई थी। उस क्रूरता के परिणाम स्वरूप माँ के पेट में आते ही माँ के मन में भी दुर्भावना होने लगी। माता-पिता ने निर्णय लिया कि पता नहीं है कैसा बेटा हमारे पेट में आया, हमारे कुल का विनाशक न हो, ज्योतिषियों ने भी बोल दिया था। उन्होंने उसे कांसे के बर्तन में बहा दिया। पर बाद में कंस का लालन-पालन हुआ, पुण्य तो उसका था लेकिन उसके पुराने संस्कार ने उसे क्रूर बना दिया। अतीत के जन्म में वह एक मुनि महाराज था। उस मुनि महाराज की अवस्था में उन्होंने मासोपवास का तप किया था। तप करके मथुरा में आहार के लिए आए। राजा उग्रसेन चाहता था कि महाराज को आहार मैं ही दूँ। सारे नगर में उन्होंने घोषणा करवा दी कि ‘इन महाराज को आहार मैं ही दूँगा, और कोई नहीं देगा।’ महाराज एक माह का तप करके आए और जब आहर को निकले तो सब लोग राजा आज्ञा के कारण आहार देने के लिए कोई आगे नहीं बढ़ सके। राजा किसी राजकाज में उलझ गया, महाराज को आहार नहीं हुआ, निराहार चले गए। एक महीने का उपवास हो गया। फिर से १ महीने का उपवास लिया, दूसरे महीने के उपवास के बाद जब आए तो राजा ने फिर कह दिया अब मैं ही आहार करवाऊँगा। संयोग से एक हाथी बिदक गया, राजा उसको संभालने में लग गया। उस दिन भी महाराज का आहार नहीं हो सका। तीसरी बार जब वह आया तो उसके राजा के अस्तबल में आग लग गई, राजा उस काम में लग गया, महाराज को आहार नहीं दे पाया। जनता का धैर्य टूट गया, खुसर-पुसर होने लगी। लोगों ने कहा कि ‘यह राजा तो महाराज को मारना चाहता है, न आहार देता है न देने देता है।” यह बात महाराज के कान में आ गई। गाँठ में बन्ध गई और उन्होंने निदान किया और आगे चलकर के वही उग्रसेन के पुत्र बने कंस। जिनका पूर्व भव के संस्कार के कारण पहले से अपने माता-पिता के प्रति क्रूर भाव हुआ और उसने अपने पिता को कैद में डाल दिया। क्रूरता के संस्कार उसके अन्दर आ गए। 

यह इस तरह की स्थितियाँ जीव के साथ बनती है, हमारे पुराने भव के संस्कार हमारे साथ रहते हैं। अनुवांशिक गुणों का अपना असर होता है, वातावरण का भी अपना असर होता है, तो हम क्या करें? पूर्व के संस्कार का हमें पता नहीं है, हेरिडिटी हमारी है, वह भी एक बार होगी, उसको भी हम बदल नहीं सकते जो अनुवांशिक चला आ रहा है, चला आ रहा है। वातावरण हम अच्छा दें, अच्छा बर्ताव करें, अच्छा व्यवहार दें, अच्छी संगति दें, इससे बच्चों में बहुत अच्छा निखार आ सकता है, हम उनकी अच्छी परवरिश कर सकते हैं। जो हमारे नियंत्रण से बाहर है उसमें हमारा कोई रोल नहीं लेकिन जो हमारे नियंत्रण में जितना है उतना हम करें तो बहुत कुछ अच्छा हो सकता है। कई बार अच्छे संस्कार लेकर आए हुए जीव भी खोटी संगति के कारण बिगड़ जाते हैं। जैसे अंजन चोर, हेरिडिटी अच्छी थी, संस्कार भी अच्छे थे, पुण्य भी अच्छा था लेकिन कुसंगति में पड़ा तो व्यसनी बन गया, चोर बन गया। लेकिन उसी अंजन चोर के संस्कार वापस जागे तो निरंजन बन गया। चारुदत्त ‘दारूदत्त’ बन गया , दारू में ही लगा रहा, व्यसनों में ही फँसा रहा लेकिन जब उसकी चेतना बदली, जीवन परिवर्तित हो गया तो हमें हमेशा जो हमारे हाथ में उसे संभालना चाहिए।

Share

Leave a Reply