एक गृहणी अपनी धार्मिक और पारिवारिक जीवन में सामंजस्य बैठा कर अपने कर्तव्यों का पालन किस तरह कर सकती है?
धार्मिक और पारिवारिक जीवन के मध्य सन्तुलन बनाकर के चलना चाहिए। केवल परिवार में उलझे रहना भी ठीक नहीं, पारिवारिक दायित्त्व की उपेक्षा करके जरूरत से ज़्यादा धर्म करना भी ठीक नहीं। धर्म भी करें और अपने पारिवारिक दायित्त्वों का भी ठीक तरीके से निर्वाह करें।
आपने पूछा है ऐसा कैसे करें? अपनी नियमित दिनचर्या बनायें। नियमित दिनचर्या बनाकर घर-परिवार की व्यवस्थाओं को व्यवस्थित करते हुए अपने धर्म ध्यान का शेड्यूल तय करें।
सन १९९९ में मेरा भोजपुर चातुर्मास हुआ, भोपाल शहर से रोज एक बस आती थी। कुछ लोग रोज आहार देने के लिए आया करते थे। ८ बजे बस चलती थी, ९ बजे वो लोग आते थे, हम लोग आहार करते थे। आहार करने के बाद जब हम लोग सामायिक बैठ जाते, १२:३० बजे बस वापस जाती और लगभग १:३० बजे भोपाल पहुँचती थी। ये रोज का क्रम था। एक सज्जन ने एक की धर्मपत्नी के बारे में पूछा ‘आपकी धर्मपत्नी रोज जाती है, आप रोकते नहीं? आपके घर का कार्यक्रम व्यवस्था डिस्टर्ब नहीं होती?’ तो उन्होंने जो बात कही वह मैं आप जैसी सब गृहणियों को कहना चाहता हूँ। उन्होंने कहा ‘मैं क्यों रोंकूँ? वह सुबह ३ बजे से उठकर अपना पाठ-जाप सब करती है और हम लोगों के लिए सारी तैयारी करती है, बच्चों का खाना तैयार करती है, टिफिन तैयार करती है, और मेरे को वह नाश्ता देने के बाद जाती है। अपने साथ अपना खाना भी बनाकर के ले जाती है; तो मैं क्यों रोकूँ? और टाइम पर हमारा शाम को काम हो जाता है। मैं क्यों रोंकूँ? और एक बात और बता दूँ, जब से महाराज से जुड़ी है तब से सारी दवाईयाँ भी छूट गई हैं।’
कहने का तात्पर्य है कि धार्मिक क्रियाओं को करिये पर इस तरीके से नहीं कि परिवार को देखना ही भूल जाओ। परिवार को देखते हुए, परिवार की व्यवस्थाएँ संभालते हुए भी यदि आप धार्मिक क्रियाओं को करते हैं तो कहीं किसी तरह से दिक्कत नहीं होगी। कुछ लोग जरूरत से ज़्यादा धार्मिक बन जाते हैं, इससे भी कई तरह की जटिलताएँ आ जाती हैं।
मैं एक स्थान पर था, वहाँ एक महिला जो बहुत एक्टिव थी, अपने पति के खोने के बाद वह पूरी तरह धर्म ध्यान में लग गई। उसके दो बेटे थे, उसकी शिकायत रहती थी कि मेरे बेटे धर्म से नहीं जुड़े हुए हैं। शिविर लगाती, अन्य तरह के कार्यक्रम करती, सारे देश-समाज के लोगों को एक्टिव करती पर उसकी पीड़ा थी कि मेरे घर में ‘दिया तले अन्धेरा’ वाली बात है। ‘मैं अपने परिवार के बच्चों को एक्टिव नहीं कर पाती।’ एक दिन चौका लगाया, पड़गाहन में उसका कोई बच्चा खड़ा नहीं हुआ, संयोग से रविवार का दिन था। उनका बड़ा बेटा आहार देख रहा था। आहार के बाद मैंने उसे पहचाना और अपना कमंडल उसको पकड़ा दिया। अब छोड़ने तो मुझे आना ही था, वह साथ आया। आके बैठा ही नहीं कि एक साथ सारे लोग टूट पड़े, बोले ‘महाराज जी! इसको मन्दिर आने का नियम दो, ये धर्म करें।’ मैंने सब को शान्त किया और कहा ‘भाई इसको मैं नियम दूँ इससे पहले तुम लोगों से कहता हूँ कि इसको कभी मन्दिर के लिए नहीं बोलना।’ सब चले गए, मैंने उसे रोका, फिर उससे पूछा कि ‘भैया क्या बात है, तेरी मम्मी तेरी शिकायत कर रही है, तुझसे बहुत दुखी है क्या बात है? तू मम्मी को इतना दुखी क्यों करता है, तू धर्म क्यों नहीं करता?’ जवाब दिया, बहुत ध्यान देने लायक है। उसने कहा- ‘महाराज जी मुझे उस धर्म से एलर्जी है जो मुझसे मेरी माँ को छीन ले।’ मैं चौंका- ‘क्या मतलब है?’ वह बोला, ‘महाराज जी, आपको क्या बताऊँ? मेरी मम्मी सुबह ४ बजे से मन्दिर में आ जाती है और १० बजे के पहले वापस घर नहीं पहुँचती। पापा के जाने के बाद इनका ज्यादातर समय मन्दिर में ही बीतता है। महाराज अभी हम लोग कुँवारे हैं, शादी हुई नहीं। दुकान पर जाना होता तो अपने हाथ से चाय बना करके, रखा हुआ जो नाश्ता होता है वह निकाल करके खाते हैं और जब हम १० बजे रात में लौट कर आते हैं, मम्मी हमारी सोई हुई मिलती है। मम्मी ९:३० बजे शास्त्र सभा से आती है और आकर सीधे सो जाती है। हमें मम्मी मिलती नहीं। तो मुझे लगा मम्मी को अगर धर्म की इतनी लत नहीं लगी होती तो मम्मी का कुछ समय हम लोगों को भी मिलता।’ मैंने बच्चों को समझाया और उनसे कहा कि तुम्हारी माँ ने अपने जीवन में आई हुई विपदा की घड़ी में अपने आप को डायवर्ट किया है, तुम्हें भी cooperate करना चाहिए। तुम लोगों के जीवन के निर्वाह में तुम्हारी माँ का बहुत बड़ा योगदान है। उसे मैंने उसका एहसास कराया और बाद में एकान्त में उसकी माँ को मैंने समझाया कि ‘तुम धर्म करो पर ऐसा धर्म मत करो कि तुम्हारे बच्चे ही तुम से विमुख हो जाएं। तुम जो कुछ करना चाहते हो यह भी ध्यान रखो कि तुम्हारे बच्चों की ठीक तरीके से देखभाल करना, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना और उनकी भावनाओं का ख्याल रखना, यह भी तुम्हारा एक धर्म है। माँ का धर्म निभाये बिना तुम भगवान का धर्म नहीं निभा सकती। इसलिए आप जहाँ हो, जिस भूमिका में हो, उस भूमिका को निभाते हुए धर्म के क्षेत्र में आगे बढ़े तो कहीं कोई कठिनाई नहीं होगी।
Leave a Reply