भगवान, परमात्मा और आत्मा में क्या अंतर है?

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शंका

परमात्मा क्या है? क्या परमात्मा निराकार है? भगवान और परमात्मा- ये दो शब्द हैं, क्या ये अलग-अलग हैं?

समाधान

दुनिया में परमात्मा को लेकर के कई अवधारणाएं हैं। कोई परमात्मा को निराकार मानता है, कोई एकेश्वरवादी है- ‘एक ही परमात्मा है, वह सारे संसार का शासन करता है’; कोई अलग से पृथकभूत, एक अस्तित्त्व के रूप में, परमात्मा को स्वीकार करते हैं। लेकिन जैन धर्म कहता है कि परमात्मा हमसे भिन्न कोई नहीं, हम ही परमात्मा हैं, हमसे बाहर कोई परमात्मा नहीं अप्पा सो परमाप्पा”- आत्मा ही परमात्मा है, वह निराकार है। निराकार इसलिए कि किसी भी इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है, अमूर्त है, आत्मा परमात्मा है। 

परन्तु आत्मा और परमात्मा में अन्तर क्या है? जब तक आत्मा में विकार है तब तक वह आत्मा है और आत्मा के विकार खत्म हो जाएं तो वही परमात्मा है। आत्मा के विकार नष्ट हो जाएं तो वही परमात्मा है। “अप्पा सो परमाप्पा” जैसे सोने का ore (अयस्क) होता है उसमें सोना प्राकृतिक रूप से रहता है। सोने के ओर को तो तुम अपने गले में नहीं लटकाते? क्या करते हैं उसको purify किया जाता है, process करते हैं, उसको गलाते हैं, उसकी कालिमा निकल जाती है, शुद्ध सोना निकलता है। सोना और सोने की ओर में कोई भी भिन्नता है? मूलत: तत्त्व एक है लेकिन अन्तर क्या है? सोना शुद्ध हो गया है और सोने का जो ओर है उसमें कालीमा है, किट्टीमा है, विकृतियाँ है; तो हम सब सोने की ओर हैं और हमारा परमात्मा जिसे हम अपना आदर्श मानते हैं वह सौ टंच सोना हो गया है। 

वो परमात्मा कहते हैं ‘तेरे अन्दर भी उतना ही सोना है जितना मेरे अन्दर है, जैसा मैं हूँ, बस प्रोसेस कर, सौ टंच सोना होगा।’ प्रक्रिया में लगो यही साधना है, यही तपस्या है, यही आराधना है। ऐसा कोई स्वतंत्र परमात्मा नहीं जो हमारा नियंता हो, निर्माता हो, हमारे जीवन को संचालित करता हो, हमें पुरस्कृत करता हो, हमे दंडित करता हो, हमारा उत्थान करता हो, पतन करता हो, कोई परमात्मा नहीं। मन्दिर में जिस भगवान को हम विराजमान करते हैं वह भगवान भी हमारे लिए प्रेरणा है चूंकि हमारे भीतर का परमात्मा अमूर्त है उसे हम पहचाने नहीं पाते तो उस अमूर्त परमात्मा को पहचानने के लिए बाहर का यह मूर्त आलम्बन लेते हैं और मूर्त से अमूर्त की यात्रा करते हैं।

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