जब हम धार्मिक पुस्तकों का निर्माण करते हैं, उसमें कई बार कागज हमारे पाँव में आता है, खराब होता है, तो इसमें क्या हमें पाप का बन्ध होता है?
बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न आपने पूछा है । किसी भी शास्त्र के प्रिंटिंग के प्रोसेस में बहुत सारी ऐसी क्रियाएँ होती, जो पाँव तले भी आ जाते और कुछ क्रियाएँ ऐसी होती हैं, जिसमें उसका विनय कर पाना पूरी तरह सम्भव है ही नहीं। अब ऐसी स्थिति में क्या किया जाए? मैं इसे दूसरे सन्दर्भ में देखता हूँ, यदि हम ज़्यादा सोचे तो फिर शास्त्र का प्रकाशन ही नहीं हो पाएगा और हमें उस पुराने युग में जाना होगा, जब शास्त्रों को हाथ से लिख करके लिपि-प्रतिलिपि किया जाता था।
धर्म प्रभावना के लिए शास्त्रों का प्रकाशन भी आवश्यक है। जब पहली बार शास्त्र का प्रकाशन हुआ था, तो देशभर में एक बहुत बड़ा भूचाल आया था, समाज का एक बड़ा वर्ग इस बात के लिए पक्षधर नहीं था, कि शास्त्रों का प्रकाशन हो। दूसरे वर्ग ने कहा हमें अपने तत्त्व का प्रचार करना है तो उसका प्रकाशन आवश्यक है। अन्तत: दूसरे वर्ग की बात को स्वीकार किया गया और एक सॉल्यूशन दिया गया कि जैसे एक प्रतिमा का जब निर्माण होता है, तो प्रतिमा के निर्माण की प्रक्रिया में प्रतिमा को बनाने वाला शिल्पी उस पर चढ़ता है, वो पैर भी रखता, न जाने क्या-क्या करता है। लेकिन जब तक उस प्रतिमा को हम प्रतिष्ठित नहीं कर लेते, उसके साथ होने वाले अनादर, रवैया के प्रति हमारे मन में कोई ग्लानि नहीं होती। इसी तरह शास्त्र के निर्माण की जब प्रोसेस है, तब तक उसे प्रतिमा के निर्माण की प्रक्रिया के तहत दिखना चाहिए। छप कर आने के बाद, एक बार मन्दिर जी में विराजमान हो जाए या अपने घर के शास्त्र भंडार में विराजमान कर दो, तो उसकी पूर्ण विनय का ध्यान रखना चाहिए और उसे एक प्रकार से प्रतिष्ठित मान लेना चाहिए। यद्यपि प्रकाशन प्रक्रिया में भी यथासम्भव सावधानी रखना चाहिए, क्योंकि शब्द ब्रह्म है। यथासम्भव उसके अनादर से बचना चाहिए।
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