Career Counselor होने के नाते शिक्षा का उद्देश्य नौकरी पाना तो नहीं है। शिक्षा क्या है? वास्तव में पेरेंट्स को अपने बच्चों को किस तरह से शिक्षित करना चाहिए? इस शिक्षा में स्कूल अथवा कॉलेज डिग्री के अलावा मन्दिर, मुनि महाराज, आहार इन सब का क्या योगदान होना चाहिए? हम अपने बच्चों को कैसे समग्र शिक्षा प्रदान कर सकते हैं?
बहुत ही ज्वलंत प्रश्न पूछा है रितेश भाई ने और यह इस दिशा में काफी काम भी कर रहे हैं। वस्तुतः समाज को दिशा दर्शन की जरूरत है। भारतीय परम्परा में शिक्षा का बहुत महत्त्व रहा है, युग के आदि से शिक्षा का प्रवर्तन रहा है। शिक्षा की महत्ता का रेखांकन कुरल काव्य की इन पंक्तियों में स्पष्ट होता है कि ‘मनुष्य की जीती जागती दो आंखें हैं- अंक और अक्षर- अंक और अक्षर के ज्ञान के अभाव में मनुष्य आँख वाला हो करके भी अन्धा है।’ शिक्षा का अपना महत्त्व है इसलिए शिक्षा तो होनी चाहिए लेकिन शिक्षा क्या है? हमारे यहाँ एक युक्ति है “सा विद्या या विमुक्तए” वही विद्या है जो हमारे मुक्ति का कारण बने, जो हमारे लिए कल्याणकारी हो। आज के युग में मैं देख रहा हूँ कि लोगों की शिक्षा का स्तर तो बढ़ा है लेकिन उनके भीतर की भावना दिनोदिन सूखती जा रही है।
शिक्षा के साथ संस्कारों का होना जरूरी है। पुराने जमाने में विद्यार्थियों को शिक्षा दी जाती थी, गुरुजनों के पास ले जाकर दी जाती थी, उनका गुरुकुल वास होता था। राजा-महाराजा के पुत्र भी गुरुकुल वास में जाकर के विद्या अध्ययन करते थे और वहाँ शिक्षा के साथ-साथ उदात्त जीवन मूल्यों का पाठ भी उन्हें पढ़ाया जाता था। आज इन सब चीजों का अभाव हो रहा है, इसका नतीजा है कि मनुष्य का बौद्धिक विकास तो तेजी से हो रहा है लेकिन नैतिक, चारित्रिक और भावनात्मक विकास अवरुद्ध होता जा रहा है। इस अवरोध के कारण मनुष्य के मन में अनेक प्रकार की विकृतियाँ जन्म ले रही, इसके लिए चाहिए कि समग्र शिक्षा हो। केवल बौद्धिक विकास मनुष्य का परिपूर्ण विकास नहीं कर सकता। मनुष्य के समग्र विकास के लिए हमें समग्रता का ध्यान देना होगा और शिक्षा के साथ नैतिक, चारित्रिक और भावनात्मक मूल्यों की प्रतिष्ठा पर भी ध्यान देना होगा। आज दुर्भाग्य है कि पूरे देश में और देश में क्या देश से बाहर भी विश्व में शिक्षा के बड़े-बड़े केंद्र खुल रहे हैं लेकिन उनमें संस्कारों का कोई प्रोविजन (provision) नहीं। शिक्षा के साथ संस्कार हों तो शिक्षा की गुणवत्ता है। संस्कार को गढ़ने की प्रक्रिया प्रारम्भ करनी चाहिए।
ऐसे विषम दौर में आप क्या करें? बच्चों को उच्च शिक्षा में भेजना आपकी एक जिम्मेदारी भी है और आज युग की एक जरूरत भी है, भेजें, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि को मजबूत करके भेजें। सबसे पहली शुरुआत तो घर से होनी चाहिए। घर में अच्छा वातावरण हो तो बच्चों को अच्छे संस्कार मिलेगे। आजकल मैं देखता हूँ माँ-बाप अपने बच्चों को स्कूल और उनकी अन्य शिक्षाओं के प्रति जितना ज़्यादा तत्परता दिखाते हैं उतनी तत्परता या वैसी तत्परता उनके धार्मिक और नैतिक जागरूकता के विषय में नहीं करते। चाहिए कि घर में उसकी शुरुआत करें, प्रारम्भ से बच्चों को साधु-सन्तों से जोड़ कर रखें। कई बार पेरेंट्स बोलते हैं कि आज हमारे बच्चे नहीं मान रहे हैं। बहुत सारी गड़बड़ियाँ होती है, बच्चे नहीं मानते। बच्चे क्यों नहीं मानते? क्योंकि आपने बच्चों को हमारे संस्कारों और सराकारों का पाठ पढ़ाया ही नहीं। हर पेरेंट्स से मैं कहना चाहता हूँ कि अपने धार्मिक और सामाजिक कार्यों में अपने साथ अपने बच्चों को भी जोड़ें ताकि बच्चों को इस बात का भी एहसास हो कि मेरे पेरेंट्स का समाज में क्या स्थान है और उस स्थान को वो मेंटेन कर सकें। आजकल लोग ऐसा नहीं करते इसलिये बहुत सारी गड़बड़ियाँ होती है, इस पर बहुत ध्यान देने की जरूरत है। साधु-सन्तों से प्रारम्भ से जोड़ें, जब बच्चे बड़े होते हैं तब जोड़ने की बात करते जब वह जुड़ना नहीं चाहते। बचपन से बच्चों में साधु- सन्तों के प्रति इतना अपनत्व का भाव हो जाए कि वह उनके बिना रह न सके। यह प्रयास आपको करना चाहिए।
जब बाहर पढ़ने के लिए जाए तो उनको संकल्पित करा करके भेजें। मैंने पहले भी कहा था कि गांधीजी जब भारत से बाहर गए थे तो उनकी माँ ने विट्ठलदस जी दोशी जो एक जैन श्रावक थे उनसे तीन प्रतिज्ञा कराई थी- मांस नहीं खाना, मदिरापान नहीं करना और परस्त्री सेवन नहीं करना। गांधीजी की आत्मकथा में यह बात लिखी है यदि यह प्रतिज्ञा मैंने नहीं किया होता तो मैं भ्रष्ट हो गया होता तो संकल्प जीवन का सुरक्षा कवच है। उन्हें संकल्पित करायें और शिक्षा अच्छे से दिलाएँ और शिक्षा सम्पूर्ण होने के उपरान्त १ माह तक युगानुरूप धर्म की व्याख्या करने वाले गुरुओं के सानिध्य में लाए और उनका एक वर्कशॉप कराएँ ताकि वे आध्यात्मिक रूप से प्रौढ़ हो सके, परिपक्व हो सके और अपने गृहस्थ जीवन को सुख पूर्वक जी सकें तो सारे के सारे कार्य हो सकते हैं।
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