मोक्षमार्ग के लिए एक गुरु की जरूरत होती है। गुरु के बिना मोक्षमार्ग नहीं मिलता है। आपको विद्यासागर जैसे गुरु मिले इसलिए आपके कदम आगे आगे बढ़ते जा रहे हैं। हम श्रावक गुरु तो बहुत जल्दी बना लेते हैं, मगर गुरु बना लेने से कुछ नहीं होता है, उत्तम शिष्य बनना बहुत जरूरी होता है जो आपने अपने जीवन में दिखा दिया है। गुरुदेव, हमें ये गाइडलाइन दें कि अच्छा सच्चा शिष्य, सच्चा चेला बनने के लिए क्या criteria (मापदंड) है?
बहुत सुंदर! बिल्कुल सही कहा है गुरु बनाना सरल है और शिष्य बनना कठिन है और जब तक हम अपने आप को शिष्य नहीं बनाते हैं, हमारे भीतर कोई गुरु नहीं बन सकता। इसलिए अपने आप को शिष्य बनाना है। एक अच्छा शिष्य कौन बन सकता है?- जो अपनी समझ शक्ति को गुरु के चरणों में समर्पित कर दे, जो अपनी निर्णय शक्ति को गुरु के चरणों में समर्पित कर दे, जो अपनी सहनशक्ति को गुरु के चरणों में अर्पित कर दे, वह एक अच्छा शिष्य बन जाता है। समझ शक्ति, निर्णय शक्ति और सहनशक्ति।
समझ शक्ति, अपनी बुद्धि जब तक अपने साथ रखोगे कभी गुरु की कृपा का प्रसाद नहीं पा पाओगे। गुरु जो कहेंगे उसमें गुणा भाग लगाओगे। गुरु के प्रति समर्पण में बाधा अगर बनती है सबसे पहले तो बुद्ध। यह बुद्धि बहुत उत्पात मचाने वाली चीज है, इससे अपने आप को बचाओ। ‘मैं कुछ नहीं जानता, मैं कितना भी ज्ञानी हूँ पर गुरु के आगे तो अज्ञानी हूँ। हमारी औकात क्या है? अगर गुरु ने अपना हस्तावलंबन नहीं दिया होता तो आज हम क्या होते?’ लोग मेरी प्रशंसा करते हैं, मेरे ज्ञान की बात करते हैं लेकिन जब भी मैं अपने आप को और अपने गुरु के सामने पाता हूँ या गुरु को स्मरण करता हूँ, मुझे लगता है उनके आगे तो मैं कुछ भी नहीं हूँ, कुछ भी नहीं हूँ, धूल भी नहीं हूँ। गुरु के पास जाओ तो अपनी बुद्धि को ताक पर रखकर जाओ, अपनी बुद्धि लेकर गुरु के पास जाओगे गुरु की कृपा का प्रसाद कभी नहीं पा पाओगे। उसमें तर्क-वितर्क होगा, लाभ-हानि की बात जुड़ेगी, कैलकुलेशन करना शुरु कर दोगे। गुरु के चरणों में जा रहे हो तब सोचो- ‘अब मेरा कोई डिसीजन नहीं, उनका डिसीजन ही मेरा डिसीजन है, जो कह दें सहज स्वीकार, शिरोधार्य है।’ एक बार भी इधर से उधर न हो वही सच्चा शिष्य है।
निर्णय शक्ति – गुरु ने निर्णय दे दिया, दे दिया, काम खत्म। एकलव्य को द्रोणाचार्य ने मना कर दिया, ‘ठीक है आपने मना कर दिया गुरु बनने से, मैं तो शिष्य बन चुका’- एकलव्य ने अपनी सारी बुद्धि को एक तरफ रख कर के, तर्क को एक तरफ रख कर के, मिट्टी के उस द्रोणाचार्य से वह सब कुछ सीख लिया जो अर्जुन उनसे साक्षात् नहीं सीख पाया। यह समझ शक्ति को समर्पित करने का और निर्णयशक्ति को समर्पित करने का परिणाम है।
सहन शक्ति – गुरु की सब बात को सहन करने की शक्ति हो, अच्छी बात को भी और बुरी बात को भी। क्योंकि-
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
गुरु चोट करते हैं ऐसी चोट करते हैं कि सामने वाला बौखला जाए। लेकिन गुरु का उद्देश्य चोट करने का नहीं होता, शिष्य को मजबूत बनाने का होता है, शिष्य की खोट निकालने का होता है। तो शिष्य की खोट निकलनी चाहिए; और चोट लगे लेकिन यह चोट ऊपर की हो, अन्दर की न हो इसलिए अन्दर हाथ सम्भारे रखते हैं। लेकिन देखने वाले को गुरु का अन्दर का हाथ नहीं दिखता, बाहर की चोट दिखती है पर इस चोट को जो सहन करने में समर्थ होता है वही कुछ पा पाता है।
मैं तो कहता हूँ मिट्टी जब तक पिटती नहीं, तब तक घड़ा का आकार नहीं ले सकती इसलिए मिट्टी के पुतले के लिए मिट्टी की तरह गुरु चरणों में समर्पित हो जाओ, आपके भीतर एक अच्छा शिष्य होगा और आप अपने आप को एक अच्छे शिष्य के रूप में स्थापित कर पाओगे। जिसे किसी योग्य गुरु का सान्निध्य मिल गया उसे इस संसार में कुछ भी सोचने की आवश्यकता नहीं है।
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