चमत्कारों की क्या यथार्थता है? इन्हें अपनी श्रद्धा और भावना से किस प्रकार जोड़ें कि हमारे जीवन में चमत्कार हो जाए?
कई लोग हैं जिनका चमत्कारों पर बड़ा विश्वास होता है। मेरी राय में चमत्कार और कुछ नहीं, हमारी भावनाओं का ही एक प्रकट रूप है। मान लो तो चमत्कार, न मानो तो कोई चमत्कार नहीं।
जहाँ तक चमत्कारों से प्रभावित होने का सवाल है, मैं कहता हूँ बाहरी चमत्कारों से बिल्कुल भी प्रभावित मत होना। अपनी चेतना को चमत्कृत करने का प्रयत्न करो। कुछ लोग बाहर के चमत्कारों से प्रभावित होते हैं। एक बार एक युवक मेरे पास आया। बोला ‘महाराज आप कोई चमत्कार नहीं करते?’ “कैसा चमत्कार, भाई?” बोला- ‘एक महाराज हैं वो नारियल से हीरा निकाल देते हैं। नारियल फोड़ते हैं उसमें से हीरा निकल जाता है।’ “अच्छा, फिर क्या करते हैं? हीरा अपने पास रखते या लोगों को बाँट देते हैं।” बोले- ‘रखते तो अपने पास ही हैं।’ तब मैंने उससे एक बात कही कि ‘देख, ज़्यादा तो मैं नहीं जानता, जब मैं छोटा था, स्कूल में पढ़ता था न, तो जब आधी छुट्टी होती थी तो वहीं बगल में कचहरी थी। वहाँ मदारी लोग अपना खेल दिखाते थे तो मैं देखता था। मेरा बड़ा इंटरेस्ट होता था तो मैं देखता था कि वह दस के नोट को बीस का नोट बना देता था। १०– १० के नोट को २०–२० का नोट बना देता था। जब उसका खेल खत्म होता, तो १०– १० पैसे के लिए हाथ बढ़ाता था। जो व्यक्ति १० का नोट २० का बनाता है, दस के नोट को बीस में बदलने में सक्षम है, वह १० पैसे के लिए हाथ क्यों बढ़ा रहा है? इतनी समझ रखो, जल्दी से कोई भी चमत्कार तुम्हें प्रभावित नहीं करेंगे।
हम चमत्कारों की बड़ी बड़ी-बड़ी गाथा गाते हैं और जहाँ से चमत्कार की बातें कहते हैं, वहीं कई प्रकार की उलझनें होती हैं, वहाँ चमत्कार कहाँ गया? चैतन्य चमत्कार को पहचानो। कर्म सिद्धांत पर विश्वास रखो, कर्मकांड पर नहीं। यह विडम्बना है कि परम तत्त्व ज्ञान मूलक जैन धर्म आजकल कर्मकांडों में बदलता जा रहा है और लोग इन्हीं में बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। मैं समझता हूँ ये धर्म की सच्ची समझ नहीं है। पुण्य और पाप पर विश्वास रखो। इन सब चीजों को इन चमत्कारों से जोड़ना मेरी दृष्टि से औचित्यपूर्ण नहीं है। मैं न तो इस तरह के चमत्कारों में विश्वास रखता हूँ और न ही मेरी इसमें किसी प्रकार की रूचि है।
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