धार्मिक सभा में जहाँ देव-शास्त्र-गुरु विराजमान हैं, वहाँ श्रावकों का, श्रेष्ठियों का सम्मान होता है; क्या वह सम्मान उचित है? अगर सम्मान करना ही पड़े तो उसकी प्रक्रिया क्या होगी?
धर्म सभा में जहाँ देव-शास्त्र-गुरु का समागम है वहाँ अगर देखा जाए तो सत्कार-सम्मान बहुत शोभास्पद नहीं होता, लेकिन किसी व्यक्ति के अच्छे कार्य की अनुमोदना करने में कोई दोष नहीं है। जैसे, किसी ने दान किया, किसी ने कोई बहुत अच्छा कार्य किया- समाज हित में, धर्म हित में, संस्कृति हित में… कोई त्याग-तपस्या की तो उसकी सराहना की जा सकती है। इसके लिए गुरुओं का भी आशीर्वाद रहता और उनकी साक्ष्य में यदि उस व्यक्ति का सत्कार किया जाता है, तो यह सत्कार या सम्मान नहीं, उसकी त्याग तपस्या या दान की अनुमोदना है। ऐसा करने में कोई दोष नहीं।
लेकिन जरूरत से ज़्यादा महिमामंडन और अतिरेक नहीं होना चाहिए। सम्मान आप कभी भी किसी से करें-कराएँ, गुरु चरणों में श्रीफल पहले अर्पित करें, गुरुओं का सम्मान पहले बचा के रखें। एक बार एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि ‘महाराज जी आप लोगों की धर्म सभा में राजनेता लोग आते हैं और उनका सम्मान होता है। क्या यह उचित है?’ मेरी बात को बहुत गम्भीरता से समझना, मैंने कहा- ‘देखो! प्रथम दृष्टया देखने पर वह उचित नहीं लगता पर इसमें अनुचित भी कुछ नहीं है। आज ऐसा है कि साधु-सन्तों की जो सभा है वह धर्म सभा के साथ-साथ समाज का एक मंच भी है और हमारे समाज के बहुत सारे ऐसे कार्य होते हैं जो इस तरह के सामाजिक मंचों में ही संपादित हो सकते हैं। लोगों को प्रोत्साहित करना और इस तरह के लोगों से समाज हित में धर्म की प्रभावना के लिए काम निकालना ऐसे मंचों के माध्यम से ही हो सकता है
जैनी भाई तो धर्म निष्ठा से जुड़कर के आता है लेकिन जो आपके एक आमंत्रित अतिथि की भाँति है ऐसे व्यक्ति को आप अगर बुलाते हैं तो उसको बुला करके उसका यथोचित, उसके योग्य सत्कार करते हैं तो वह व्यक्ति आपके धर्म से, आपकी समाज से जुड़ता है और कभी हमारे किसी भी प्रकार की बाधा के निवारण में सहायक बनता है यदि हम इस दृष्टि से देखते हैं तो मुझे कुछ भी अनुचित नहीं लगता। सब चीजों को सब एँगल से देखना चाहिए। क्योंकि भीड़ में ही समाज के मंच इस अर्थ में उपयोग होता है, तो मैं इसे किसी दृष्टि से गलत नहीं मानता बहुत प्रशंसनीय तो नहीं है पर ऐसा भी कि जिसे हम अवांछनीय कहें।
एक बात का ध्यान रखना चाहिए, गुरुओं के सामने किसी को माला मत पहनाओ। आप उनको तिलक करो जो हमारी परम्परा है; आप उनको दुपट्टा ओढ़ा दो यह हमारी परम्परा है; आप उन्हें कोई प्रतीक पकड़ा दो यह हमारी परम्परा है; पर गुरुओं के सामने माला मत पहनाओ। जिसका भी आप सत्कार कर रहे हो पहले गुरु चरणों में उनसे श्रीफल अर्पित कराओ। वो गुरुओं का सत्कार करें उसके बाद आप किसी का करें। इस स्वरूप को अगर बना करके रखा जाए तो बहुत अच्छा है बहुत सारे हमारे साधर्मी भाई हैं जो गुरुओं के सामने किसी भी प्रकार का सत्कार कराना नहीं चाहते। लेकिन इसे पॉजिटिव सोच में समझो एक आदमी अच्छा कार्य करता है और लोग उसकी अनुमोदना करते हैं तो उसे देखकर दूसरे के मन में भी भावना आती है, तीसरे के मन में भी भावना आती है। और यह औरों के लिए प्रोत्साहन का भी कारण बन जाता है, तो इस दृष्टि से करें तो इसमें कुछ असंगत जैसा नहीं लगता।
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