दान में आया हुआ पैसा ब्याज से चलाते हैं और लेते हैं तो क्या यह उचित है?
दान में आया हुआ पैसा ब्याज में चलाना और लेना मेरी दृष्टि में बहुत प्रशंसनीय नहीं है। आपने मन्दिर का पैसा लिया और बीच में चले गए तो पाप लेकर जाओगे। ‘महाराज! फिर मन्दिरों के रुपयों का करें क्या?’ यह भी एक बड़ी समस्या है। हम बैंकों में रखते हैं पर कई जगह बैंकों में रखने की व्यवस्था नहीं होती।
मेरा तो यह कहना है कि मन्दिरों के रुपयों को लेकर के ज़्यादा आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। जो एक सहज व्यवस्था है उस तरह से चलना चाहिए और उसको इस तरीके से ब्याज पर नहीं लेना चाहिए। यदि कदाचित हम ब्याज पर लें तो वाजिब ब्याज दें। यह एक बहुत बड़ी दुविधापूर्ण स्थिति बनती है। कई जगह समाजों में ऐसा होता है कि लोग मन्दिरों के रुपयों को अपने व्यापार में लगाते हैं या कम पैसे में मन्दिर से रुपया लेते हैं और दूसरों को उससे ज़्यादा ब्याज पर दे देते हैं। यह व्यवसाय नहीं है बल्कि निर्माल्य है और महान पाप का कारण है।
एक-दो प्रसंग मेरे सामने आए। एक व्यक्ति इस तरह का कार्य किया करते थे। वह मन्दिर का सारा रुपया अपने पास रखते थे और उनके खुद का ब्याज का काम था। मन्दिर में वह ७५ पैसा देते थे और खुद १ और १.५% में लोगों को देते थे। मन्दिर के पैसे से वह कमाते थे और आपको सुनकर के बड़ा कष्ट होगा कि वह व्यक्ति अपने जीवन के आखिरी दौर में ३ साल तक बिस्तर पर पड़ा रहा। पैरालिसिस का अटैक हुआ फिर उसको ब्रेन हेमरेज हो गया और वह कोमा में पड़ा रहा, वह सड़-सड़कर मरा; आखिरी दिनों में उसको बैठसुर भी हो गया। तो और भी कई तरह की विपत्ति आती हैं।
कई ऐसे लोग भी मेरे सम्पर्क में है जो मन्दिर का रुपया अगर घर में किसी कारणवश पदाधिकारी होने के नाते एक-दो दिन, चार दिन रूपये होते भी हैं तो रुपयों को अलग बंडल बनाकर के रख देते हैं और छूते तक नहीं हैं कि ‘यह दान का रुपया है, इसे मुझे छूना नहीं है। इसका तो जिस उद्देश्य से दातार ने दिया, हमें उसी उद्देश्य की पूर्ति करनी है।’
फिर यह भी सोचिए कि जो भी दान देता है, तो आपको बाजार में चलाने के लिए देता है कि निर्माण कार्य में लगाने के लिए देता है? इस पर बहुत गम्भीरता से ध्यान देना चाहिए। मन्दिर के धन को देव द्रव्य मानना चाहिए, रुपया नहीं। अगर रुपया मानोगे तो आप उसका भी नियोजन करोगे और देव द्रव्य मानोगे तो आपके मन में कभी इधर-उधर करने के भाव ही नहीं होंगे।
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