किसी ने कहा है कि ‘जिसने दर्द में मुस्कुराना सीख लिया, उसने जीना सीख लिया!’ दर्द में मुस्कुराने की कला क्या है, मन्त्र क्या है?
वाकई में वे लोग महान हैं जो दर्द में भी मुस्कुराते हैं। जीवन में दर्द न हो यह किसी के हाथ में नहीं; पर कैसा भी दर्द क्यों न हो, हम अपनी मुस्कुराहट बनाए रखें, यह हमारे हाथ में है। दर्द में मुस्कुराने की कला आपने पूछी है, चार सूत्र देता हूँ, यदि इन चार सूत्रों को याद रखोगे, चाहे जीवन में कैसा भी दुख-दर्द हो, तुम्हारे मुँह पर मुस्कान बनी रहेगी।
सबसे पहली बात– आत्मविश्वास से भरे रहें। आत्मविश्वास को दो सन्दर्भों में लीजिए- पहले अपने आत्म तत्त्व का विश्वास; और दूसरा, जिसे आप सेल्फ-कॉन्फिडेंस के रूप में जानते हैं। हमारा आत्मविश्वास बलवान होना चाहिए। जिस मनुष्य के मन में आत्मा के प्रति विश्वास और श्रद्धा होती है “मैं आत्मा हूँ” – वो जानता है कि यह दर्द आत्मा में है ही नहीं। ये दर्द किस में है- शरीर में, यह कष्ट किसको है?- शरीर को है। मैं उसका दृष्टा हूँ, मैं उसका साक्षी हूँ, मैं मेरा कोई बिगाड़ नहीं हो सकता, मेरे एक प्रदेश भी इधर से उधर नहीं हो सकते, यह भेद-विज्ञान जिस मनुष्य के हृदय में होता है, ऐसे आत्मविश्वास से जो भर के रहता है, उस व्यक्ति के जीवन में आने वाला दुख-दर्द, कष्ट उसे विचलित नहीं कर पाता। दूसरे सन्दर्भ में, जिसके मन में आत्मविश्वास होता है कैसा भी दुःख हो, वह सोचता है ‘मैं इसे पार कर लूँगा, मैं इसे जीत लूँगा, मैं इससे उबर जाऊँगा’, उसका यह विश्वास उसके मनोबल को स्थिर बनाता है, जिसके बल पर बहुत दुःख और संकट की घड़ियों में भी स्थिरता बनाये रखता है।
दूसरी बात– कर्म सिद्धान्त पर भरोसा रखो। यह सोचो कि ‘हमारा जीवन शुभाशुभ कर्म संयोंगो पर चलता है। आज मेरे कर्म का उदय ऐसा है, ठीक है दुःख आया है, तो कर्म का उदय है, सुख आया है, तो कर्म का उदय है। यह बाहर की परिणति है, मेरा कुछ भी बिगाड़-सुधार नहीं है। न मैं पुण्य को महत्त्व दूँ, न पाप को महत्त्व दूँ, यह पुण्य-पाप का फल है जिसे हर किसी को भुगतना ही पड़ता है। पर यह सारा खेल ऊपर का है, भीतर से इसका कोई नाता नहीं है।’ मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसके जीवन में एक साथ तीन बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ आईं। पहली विपत्ति – पत्नी पैरालाइज्ड हुई, अचानक ब्रेन स्ट्रोक हुआ पत्नी पैरालिसिस में ग्रसित हो गई। उनका एक अंग पूरा अशक्त हो गया। इससे वो उबरे भी नहीं थे, उबरे क्या?, संभाले भी नहीं, उनके बेटे का डाइवोर्स हो गया। अभी तीसरे क्रम में उसी दरमियान उनको व्यापार में बड़ा नुकसान हुआ लेकिन इन तीनों प्रकार की विपत्तियों को झेलने के बाद भी वह आदमी सहज बना रहा, केवल इस विश्वास से कि कर्म का उदय है, कर्म का चक्र है, चल रहा है, चलता रहेगा, बदलेगा। पुण्य- पाप का खेल तो अपने क्रम से ही चलता है, ‘मैं क्या कर सकता हूँ?’, उन्होंने अपने मन में धैर्य रखा। जो मनुष्य कर्म के सिद्धान्त पर विश्वास रखता है वह कभी विचलित नहीं होता। अंजना का उदाहरण हम सबके सामने हैं, उन्होंने कैसे उस दुःख भरी घड़ी में भी कितने साहस-पराक्रम का परिचय दिया। जो मनुष्य कर्म के सिद्धान्त पर विश्वास रखता है वह अपने जीवन की बड़ी से बड़ी विपदा को भी पार कर लेता है।
तीसरी बात– सकारात्मक सोचो। जब आपकी सोच सकारात्मक होगी तो आप अपने दुखों को कमतर आंकने में समर्थ हो जाओगे। ‘मेरा जो दुःख है जितना दुःख मैं मान रहा हूँ, अपेक्षाकृत कम है।’ तुम्हें दुःख में भी सुख दिखने लगेगा, बुराई में भी अच्छाई दिखने लगेगी, प्रतिकूलता में भी अनुकूलता दिखने लगेगी, विसंगति में संगति नजर आने लगी, ये जीवन का सन्तुलन बनेगा।
चौथी बात– हमेशा धैर्य रखो, मन में धीरज रखो। धीरज रखने के लिए क्या सोचो?- यह थोड़ी देर की बात है, यह थोड़ी देर की बात है, चलो हम इसे tolerate कर लेंगे। यह थोड़ी देर की बात है हम इसे tolerate कर लेंगे। अभी सवाल कर रही हो आप खड़े होकर के, कोई तकलीफ हो रही है? अगर १ घंटे खड़े रहने के लिए कह दूँ मैं कि आज आपने सवाल बहुत अच्छा किया है, आपको पूरा सेशन ऐसे ही खड़े होकर के रहना है, तो कैसा लगेगा? मन में आकुलता-व्याकुलता होगी या नहीं होगी? ‘अरे, आज कहाँ फंस गए, पता नहीं महाराज का क्या मूड बन गया, मुझे १ घंटे खड़ा कर दिया। मेरे तो पैर में ऐसे भी ताकत नहीं है, खड़ा रहा नहीं जाता, अब मैं क्या करूँ?’ शायद, अगर ऐसी स्थिति आए तो मन तैयार नहीं होगा। कितना भी लाचार व्यक्ति हो, तकलीफ भी हो और उसे कहा जाए- ‘थोड़ी देर की बात है, tolerate कर लेंगे, चलो अच्छा है, मज़ा आएगा।’ क्या हुआ? जब हम यह धारणा अपने मन में बिठा लेते हैं कि यह दुःख है, थोड़ी देर के लिए है, तो tolerable हो जाता है, सहज स्वीकार हो जाता है, ‘ठीक है, यह तो हम झेल लेंगे। ऐसा तो हम कर लेंगे’, यही हमारे जीवन में आनन्द भर देता है।
Leave a Reply