पूर्वजों से सुना करते थे कि लगभग अर्ध-शताब्दी पूर्व, जब बहुत ज़्यादा विद्वान् या आगम के वेत्ता नहीं होते थे, तो जो तत्त्वार्थ सूत्र का ही वाचन कर देते थे, वे महा-ज्ञानी महा-विद्वान माने जाते थे। उनको बड़े आदर और सम्मान के साथ समाज स्थान देता था और सुनता था। धर्म का आधार उस समय आस्था थी; आज, हम नवीन पीढ़ी में देखते हैं, हमारे बालक बालिकाएँ विशेष ज्ञान अर्जित करने के लिए बाहर पढ़ने के लिए जाते हैं। जब उनके सामने हम आगम की भाषा बोलते हैं, तो वे शंकाएँ प्रस्तुत करते हैं कि- “ऐसा कैसे? भूगोल कैसा? खगोल कैसा?” तो मुझे ऐसा लगता है कि धर्म का आधार अब बुद्धि ने ले लिया है। क्या धर्म का आधार आस्था है या धर्म का आधार बुद्धि है? धर्म श्रध्दागम्य है या धर्म बुद्धिगम्य है?
न कोरी श्रद्धा से धर्म का लाभ लिया जा सकता है, न शुष्क बुद्धि धर्म को दिला सकती है। सच्चे अर्थों में धर्म का लाभ वह लोग ले सकते हैं जो श्रद्धा से जुड़कर अपनी बुद्धि को सही दिशा में नियोजित करते हैं। श्रद्धा विहीन बुद्धि भटकाती है, श्रद्धावान व्यक्ति अपनी बुद्धि का सही इस्तेमाल करके आगे बढ़ जाता है। आपके प्रश्न के उत्तर में मैं ४ शब्द आप सबके बीच रखना चाहता हूँ। विश्वास, बुद्धि, तर्क और श्रद्धा! जाने पहचाने शब्द हैं, लेकिन इनके अर्थ को मेरी दृष्टि से देखिये। विश्वास कहता है- “मैं रात अन्धेरे में भी बेधड़क चला करता हूँ”; बुद्धि कहती है, “मैं तो दिन के उजाले में भी भटक जाया करती हूँ”। श्रद्धा कहती है, “मैं पाषाण में भी भगवान का दर्शन कर लेती हूँ, तो तर्क कहता है, “मैं भगवान को भी पाषाण सिद्ध कर देता हूँ”। मैं समझता हूँ उत्तर पर्याप्त है।
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