मन्दिर से सम्बन्धित धर्म-आयतनों को कुछ लोग दुकानदारी हेतु दे देते हैं। उससे मन्दिर में आमदनी तो होती है, परन्तु यह केवल धर्म प्रभावना के लिए ही होना चाहिए। कृपया मार्गदर्शन दें।
पहले से मन्दिरों के रखरखाव के लिए भूमि भवन आदि लगाने की पुरानी परिपाटी रही है। और वो इस भाव से लगाया जाता था कि इसकी आय से मन्दिर की सेवा-पूजा होते रहे। इस दृष्टि से यदि मन्दिर की किसी सम्पत्ति का किराया आदि में लोग उपयोग करते हैं, तो दोष नहीं, किन्तु, वाजिब किराया होना चाहिए। और जो भी उसका इस्तेमाल कर रहे हैं, वे इसे अपनी निजी सम्पत्ति न मानें, उसे मन्दिर की सम्पत्ति मानें। और जो उस समय का किराया हो वह दें।
मैं ऐसे अनेक लोगों को जानता हूँ जो आज भी मन्दिर को रु ३० महीना दे रहे हैं, और दरवाजे पर बैठे दर्जी से रु ३०० महीना ले रहे हैं। यह निर्माल्य का भोग है। महान पाप का कारण है। यह दुर्गति का कारण बनता है।
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