जैन समाज की शिक्षण संस्थाओं का प्रबंधन कैसे हो?

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शंका

संस्कृति, सभ्यता, सदाचार, संस्कार की स्थापना में एक शिक्षक और शिक्षण संस्थान की क्या भूमिका होती है? ऐसी परिस्थितियों में जबकि जैन समाज के पास कई शिक्षण संस्थाएँ है लेकिन उनका उचित प्रबंधन नहीं है। तो क्या आज की परिस्थितियों के अनुरूप उनके प्रबंधन किए बिना हम अपनी समाज के कुलाचार की रक्षा कर सकते हैं? कृपया समाधान करें।

समाधान

जीवन के निर्माण में शिक्षा का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है और शिक्षा में शिक्षण संस्थान की महती भूमिका है। अगर शिक्षण संस्थान ठीक होंगे, बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलेगी तो उनके संस्कार भी बनेंगे और जब उनके संस्कार अच्छे बनेंगे तभी वे संस्कृति की सुरक्षा कर सकेंगे और अपनी सभ्यता के अनुरूप अपने आपको ढाल सकेंगे, इसलिए ये बुनियाद है। 

जैन समाज में शिक्षण संस्थाएँ बहुत हैं, बहुलता है। लेकिन वर्तमान में जैन समाज के द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों में कुछ अपवादों को छोड़कर प्राय उनकी बड़ी दुरावस्था हो रखी है। एक समय जिन विद्यालयों में बड़ों-बड़ों की सिफारिश लगती थी तब उसमें प्रवेश मिलता था, आज वे सारे विद्यालय खाली दिखाई पड़ते हैं। इसके पीछे कई कारण है एक सबसे बड़ा कारण तो मुझे ये दिखता है अंग्रेजी माध्यम होना; दूसरा शिक्षा का व्यवसायीकरण होना। एक समय था जब शिक्षा को एक धर्मार्थ कार्य माना जाता था और लोग (charity) परोपकार ओर पारमार्थिक भावना से शिक्षा संस्थान की स्थापना करते थे। समय बदला है और बदले हुए इस परिवेश में शिक्षा (education) एक उद्योग (industry) बन गई और ये जब से इसने उद्योग का स्वरूप ले लिया एक गला काट प्रतियोगिता जैसी हो गई। ऐसे समय में शिक्षण संस्थानों की स्थापना करना उनको संचालित करना बड़ी चुनौती भरा काम हो गया है। चाहे वह शिक्षण संस्थान हो, चाहे मेडिकल हो दोनों के साथ ऐसी स्थिति हो गई है, तो जैन समाज के लोगों को चाहिए कि उनके पास (infrastructure) भूमिकारूप व्यवस्था तो आज भी बहुत मजबूत है, अपने पुराने शिक्षा संस्थानों को नए स्वरूप में संचालित करने का बीड़ा उठायें। नई सोच के साथ तो यह मान करके चलना हम अपनी संस्कृति को बहुत आगे बढ़ाने में समर्थ होंगे। लेकिन यह तभी होगा जब हमारे संस्थानों में बैठे हुए लोग अपनी संस्थावादी मनोवृति से ऊपर उठें। अक्सर यह देखा जाता है जो जिस संस्था में बैठ जाता है उसे अपनी जागीर बना लेता है। उसका मोह नहीं छूटता वो अपनी सोच नहीं बदलना चाहता, और नई सोच के साथ चलना नहीं चाहता। समाज में बहुत दाँव-पेच, खींच-तान भी चलती है, इसलिए गड़बड़ियाँ होती है। 

हम चाहेंगे सारे देश के लोग समाज के निर्माण के लिए, देश के निर्माण के लिए अपनी एक नई सोच ले करके चलें कि हमें किसी भी तरीके से अपने जैनत्त्व को जीवित रखना है, संस्कार को सुरक्षित रखना है, सभ्यता को मजबूत बनाना है हम नए तरीके से काम करें तो यह कहीं से असंभव नहीं है, कठिन जरूर है, पर साध्य है।

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