आगम के अनुसार एकल विहारी मुनि कौन कहलाते हैं?
शास्त्रों में एकल विहारी का मतलब होता है जो अकेला हो! अकेला मतलब जिस पर किसी का अनुशासन न हो, स्वैरविहारी, स्वच्छन्दाचारी! अपनी मर्जी से कहीं आता और कहीं जाता हो, गुरु का कोई अनुशासन न हो वो एकल विहारी।
शास्त्र में लिखा है कि दो समलिंगी मुनि को होना चाहिए, समलिंगी मुनि का मतलब है एक मुनि हो तो, उसके साथ दूसरा कोई पुरुष रहे तो कोई दोष नहीं। चाहे वो ऐलक हो, क्षुल्लक हो या मुनि। समलिंगी का तात्पर्य यह नहीं कि मुनि है, तो दो मुनि होंगे; क्षुल्लक हैं तो दो क्षुल्लक होंगे; ऐलक हैं तो दो ऐलक होंगे। पुरुष-पुरुष होंगे, स्त्री-स्त्री होंगी, ये हुई पहली बात।
पर सबसे महत्त्व की बात है संघ में रहने की बात क्यों? इसलिए कि संघ का अनुशासन बना रहे, जो गुरु के अनुशासन में रहे। अगर गुरु मुझे अकेले रहने को कहे, गुरु की आज्ञा से मैं हूँ, इस में मुझे कोई दोष नहीं क्योंकि मैं गुरु का की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ, एकल विहारी नहीं हूँ। हाँ, मैं संघ बनाकर के भी रहूँ और गुरु की आज्ञा की खिलाफत करूँ, तो मैं दोषी हूँ, क्योंकि हमारी यह जवाबदेही है। जिस दिन हमने दीक्षा ली, उस दिन हम ने संकल्प लिया कि आपकी आज्ञा का अक्षरश:अनुपालन करूँगा। दीक्षा की घड़ी में अक्षरश:आज्ञा का अनुपालन करने का संकल्प लेने वाला साधु, यदि उस आज्ञा का उल्लंघन कर लेता है, तो अपनी प्रतिबद्धता को तोड़ता है, उसके सत्य- महाव्रत में दोष लगता है। तो एकाविहारी का मतलब जो आजकल कहा जाता है और ठीक नहीं।
बंधुओं, यह एकाविहारी पर रोक की बात जो कही गई, वह इसलिए कि शिथिलाचार न हो। आज लोगे एकल- एकल की बातें करते हैं, उनको शिथिलाचार नहीं दिखता। और अब तो शिथिलाचार भी गौण हो गया, अनाचार होने लगा है, उस पर भी ध्यान जाना चाहिए। समाज को बचाना है, धर्म को बचाना है, तो हमें ध्यान में रख कर के चलना होगा। जो गुरु की आज्ञा में है, वह कभी एकलविहारी नहीं हो सकता। यह हमें मान कर के चलना चाहिए क्योंकि गुरु ने भेजा है, आज हमें गुरु कह दे कि तुम्हें अमुक स्थान पर अकेले रहना है, रहेंगे। हमारे आचार्यों ने चतुर्थ काल में भी यह व्यवस्था दी।
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