जिंदगी के किसी भी मोड़ पर हमारे सामने दो रास्ते आ जाते हैं और उसमें दोनों ही अच्छे होते हैं, उस समय में निर्णय कैसे लें?
कभी भी दोराहे पर व्यक्ति खड़ा हो और दोनों रास्ते अच्छे हों, तो इसका मतलब उस व्यक्ति ने अपना लक्ष्य निश्चित नहीं किया है। दोनों अच्छे लग रहे हैं तो तुम्हारा लक्ष्य ही नहीं है।
अभी ३-४ दिन पहले एक युवक आया, बोला, ‘महाराज! मैं यह सोच नहीं पा रहा हूँ कि शादी करूँ या साधु बनूँ? कभी आप लोगों की तरफ देखता हूँ तो लगता है आप से अच्छा कोई जीवन नहीं पर कभी अच्छे गृहस्थों को देखता हूँ तो लगता है कि यह भी ठीक है, माँ-बाप को भी देखता हूँ, लगता है घर पर रहूंगा तो ठीक रहेगा।’ तो हमने कहा दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम।
एक निर्णय करो, अगर तुम्हें निवृति के रास्ते पर जाना है तो तुम्हारा एक ही लक्ष्य होना चाहिए, मुझे साधु बनना है। और तुम्हें ऐसा लगता है कि नहीं! मुझे अभी अपने दायित्वों का पालन करना है, घर-परिवार को देखना है और मैं अभी उस रास्ते में जाने में सक्षम नहीं हूँ तो तुम्हारे लिए गृहस्थ मार्ग खुला है। तो जब भी जीवन में कोई दुविधा है, वह तब तक दूर नहीं होगी जब तक लक्ष्य पक्का नहीं होता। अपना लक्ष्य बनाओ और केवल लक्ष्य की तरफ बढ़ो। जब मनुष्य लक्ष्य से अनुबंधित हो जाता है तो कितना भी आकर्षण क्यों न हो वो उसको छोड़ता है और सीधे वहीं जाता है जहाँ उसे जाना है।
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