हमारे साथी अपना सारा परिवार, सारा जीवन त्यागकर साधु जीवन अपना लेते हैं। उसमें कोई न कोई उद्देश्य होता है, कोई धर्म प्रचार करना चाहता है, कोई समाज की सेवा करना चाहता है। उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उनको गृहस्थ जीवन में रहने वाले समर्थ लोगों की जरूरत होती है। उद्देश्य प्राप्ति के बाद, क्या कारण है कि तपस्वी का जीवन जीने वाला भी परिग्रह अपना लेता है? उन गृहस्थों को बहुत बुरी तरह तिरस्कार करके दुत्कार देता है, जबकि उनके द्वारा ही उन्होंने अपना उद्देश्य प्राप्त किया होता है।
जहाँ परिग्रह है, वहाँ भटकाव है। भटकाव कहीं का भी हो, अच्छा नहीं माना जाता। जहाँ तक भटकाव का प्रश्न है, रास्ते में चलने वाला ही भटकता है और वही भटकता है जो अपने लक्ष्य को भूलता है। यह तो स्वाभाविक स्थिति है। हमें अपने लक्ष्य को सदैव सामने रखकर के चलना चाहिए। जितना ऊँचा लक्ष्य होगा, उतना ही दृढ़ संकल्प होगा और तभी आप अपने मंजिल तक पहुँच सकेंगे। इधर-उधर जो भटक गए हैं उनमें यह सारी विकृतियाँ आयेंगी और जहाँ परिग्रह है, वहाँ विग्रह तो लगा ही हुआ है।
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