हमारे ग्रंथों में हम पढ़ते हैं, माघनंदी महाराज जी जब पुनः दीक्षित हुए तो वे संकल्प पूर्वक १,००० जैन बनाने के पश्चात ही आहार ग्रहण करते थे। वर्तमान स्थिति में भी यह है कि अजैन की तो बात अलग है, हम अपने जैन बन्धुओं को ही अजैन बनने से किस तरीके से रोकें? क्या ऐसा प्रयास करें कि उनके साथ कोई अजैनों को भी हम जैन बना सकें?
यह तब होगा जब हम अपनी कट्टरता छोड़ेंगे और सारी दीवारों को ढहाकर केवल जैनत्व को अपना मूल आदर्श बना करके चलेंगे। आज भी जैन धर्म विश्व के क्षितिज पर पूर्ण प्रतिष्ठा को पाने में समर्थ हो जाएगा। हम लोगों ने अपने चारों ओर जो दीवारें खड़ी कर रखी हैं, यही हमारे जैन धर्म की प्रगति में बाधक बना है। इसे हमें खत्म करना है और मिलजुलकर के प्रयास करना चाहिए। हमारे शास्त्र इन सब की पूरी तरह से सहमति देते हैं। पर कुछ व्यवस्थाएँ ऐसी बन गई हैं, जिस पर लोगों का ध्यान नहीं। सारे आचार्यों को इस बात पर बैठकर गम्भीर मन्थन करना चाहिए और एक धर्म सम्मत राह निकालनी चाहिए।
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