जो लोग गलत कामों से पैसा कमाते हैं और उस पैसे को धार्मिक कार्यों में, मन्दिर बनवाने में, पंचकल्याणक में आदि में खर्च करते हैं, उन्हें पाप का बन्ध होता है या पुण्य का बन्ध होता है?
गलत काम का मतलब क्या है? एक तो है हिंसा करके, हत्या करके, अनैतिकता करके, शोषण करके पैसा कमाना; और एक जिसे आप ‘ब्लैक और वाइट’ वाला कहते हैं। अनीति तो अनीति है। अनीति से पूरी तरह बचना चाहिए और इस तरह से अगर व्यक्ति पैसा कमाता है तो अपने जीवन के साथ बहुत बड़ा अनर्थ करता है। अनैतिकता का कार्य पाप है और ऐसा व्यक्ति धर्म के कार्य में लगाता है तो पुण्य है। उसके पाप के मुकाबले पुण्य बहुत पतला है। वो जितना पुण्य कमा रहा है उससे अनन्त गुना पाप अपने कदाचरण के कारण अर्जित कर रहा है। इसलिए ऐसे व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने पापात्मक प्रवृत्तियों पर भी अंकुश रखे। समाज को ऐसे व्यक्ति से घृणा नहीं करनी चाहिए, उन्हें सुधरने का अवसर देना चाहिए, अपनाना चाहिए। यदि ऐसे व्यक्तियों के लिए दरवाजे समाज में बंद हो जाएँगे तो व्यक्ति सुधरेगा कहाँ?
मैं एक घटना बताता हूँ। एक स्थान पर एक योजना के लिए भूमि क्रय करने की बात चल रही थी। लगभग आज से २५ साल पहले की बात है और उस समाज में २५ -२५००० लोन के तौर पर देने कोई राजी नहीं हो रहा था। वहाँ एक अपराधिक छवि का व्यक्ति था। इन दिनों उसकी कोई अपराधिक प्रवृत्ति नहीं थी लेकिन छवि ऐसी थी। सुबह-सुबह मेरे साथ शौच में जा रहा था। वह बोला “महाराजजी! हमने रात में सोचा है कि एक लाख रूपये हम इसमें दें।” कुल सात लाख की जरूरत थी जिसमें एक लाख रूपये वह अपनी तरफ से दान में देना चाहता था। “हमें कोई पद नहीं चाहिए, हमें ट्रस्टी वगैरह नहीं बनना है, हम एक लाख रूपये देना चाहते हैं।” हमने कहा “भैया, तुम्हारा पैसा हम अभी नहीं लेंगे, हम को सोचने दो। तुम शराब पीते हो, तुम्हारा बैकग्राउंड ठीक नहीं, तुमको हम अपना कमंडल नहीं देते तो तुम्हारा पैसा कैसे लें?” “नहीं महाराज, हमारी इच्छा है यह पैसा लग जाएगा तो मेरे पाप कुछ तो कम होंगे।” मैंने अपने विचार वहाँ के समाज के प्रमुखों के बीच रखा तो समाज के प्रमुखों में एक वकील साहब थे, उन्होंने कहा- “महाराजजी इनका पैसा हमें लेना चाहिए।” “क्यों?” बोला- “उनके पैसे में और हमारे पैसे में अन्तर क्या है?” बहुत ईमानदारी से उन्होंने कहा- “वो अपराध करते हैं और हम उनको बचाते हैं। पैसा तो दोनों का बराबर है।” उस व्यक्ति का पैसा लिया गया, वह आदमी जुड़ा और उसके जीवन में बदलाव भी घटित हुआ।
हमारा धर्म ठुकराने की बात नहीं, सिखाने की बात सिखाता है। हम ‘स्ट्रेटफारवर्ड’ (straight-forward) बहिष्कार की भाषा का प्रयोग करते हैं, यह धर्म सम्मत नहीं है। हमें संस्कार की भाषा का प्रयोग करना चाहिये। कोई आदमी गलत कार्य कर रहा है, उसके गलत कार्य को प्रोत्साहित मत करो लेकिन गलत कार्य करने वाला व्यक्ति अच्छे काम में अगर अपना कदम बढ़ा रहा है तो उसको अपनी छाती से लगाने की उदारता में कोई कमी मत रखो। ये उदारता गलत कार्यों के प्रति नहीं, उसके अच्छे कार्य के प्रति है।
एक बार गुरुदेव से किसी ने कहा कि “महाराज आजकल कई लोग नंबर दो का काम करते हैं, आपके आगे पीछे होते हैं, कम से कम आप जैसे सन्तों के सामने तो ऐसे लोगों को जगह नहीं मिली चाहिए।” गुरुदेव ने छूटते ही कहा “मरीज अस्पताल में नहीं आएगा तो कहाँ जाएगा? उनके नजरिए को देखो।” उन सज्जन से गुरुदेव ने पूछा- “आप तो प्रोफेसर हो।” “जी प्रोफेसर हूँ।” “परीक्षा लेते हो?” “लेता हूँ।” “कापियाँ जाँचते हो?” “जाँचता हूँ।” “कितने परसेंट में पास करते हो?” “३३ परसेंट ले आए तो उसको पास करते हैं। “३३ परसेंट में पास होने वाला फेल कितने परसेंट में हैं?” उन्होंने कहा “महाराजजी ३२ परसेंट में।” “गलत, ३३ परसेंट में पास होने वाला ६७ परसेंट में फेल है लेकिन आपने वैल्यूएशन करते समय यह नहीं देखा कि ये आदमी कितना नंबर नहीं लाया। आप केवल ये देखते हैं कि एक आदमी कितना नंबर पाया है। इसी तरह धर्म के क्षेत्र में कोई आदमी गलत काम कर रहा हो तो उसकी गलतियों को देखने की जगह उसके द्वारा किए जाने वाले अच्छे कार्यों की अनुमोदना करो, यही उसका सही मूल्याँकन है और तभी समाज आगे बढ़ सकेगा।
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