शंका
धार्मिक शिक्षण संस्थाएं, जैसे प्रतिभास्थली आदि- शिक्षा के साथ-साथ संस्कार देने के लिए खुल रही हैं। वहाँ से निकले हुए कुछ बच्चे जब गलत रास्ते पर चले जाते हैं तो कुछ लोग व्यंगात्मक रूप से कहते हैं कि “वहाँ पढ़े थे और तब भी ऐसे हो गए” तो उन्हें क्या कहना चाहिए?
समाधान
इसके लिए संस्था जिमेदार नहीं है, उनका परिवार है। मैं आपसे यह कहना चाहूँगा जो अपने बच्चों को प्रतिभास्थाली जैसे संस्थाओं में भेजते हैं, वो वहाँ से जब लौट करके आते हैं तो उनसे से कहते हैं- “बेटे आलू खालो; चलों तुम्हें बाहर ले जाना है।” वो जो संस्कार ले करके आए, उससे उल्टा वातावरण उनको दिखाते हैं इसलिए सारा गड़बड़ हो जाता है। जब तक शिक्षा के साथ घर की व्यवस्था को ठीक नहीं किया जाएगा, इस तरह की दुरावस्था को दूर नहीं किया जा सकता।
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