कलयुग में सबसे बड़ी खोज यही है कि हम अपनी सोच को चाहे जैसी दिशा दे सकते हैं। हम ‘ओसामा’ की सोच से ‘गुलाम’ बन सकते हैं। पर ‘ओसामा’ की जगह ‘ओबामा’ की सोच रखने के लिए क्या प्रयास करें ताकि जीवन को उच्च पद पर पहुँचा सकेंं?
सोच तो सीढ़ी जैसी है, जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ते हैं उसी सीढ़ी से नीचे उतरा जाता है। लक्ष्य क्या है? हमारी सोच हमारे संकल्पों से बन्धी है। नीतिकार कहते हैं
सर्वसंकल्पवशाद् भवति लघुर्भवति वा महान्।।
सब कुछ हमारे संकल्प के अधीन है। कोई क्षुद्र बनता है, तो भी अपने संकल्प से और कोई महान बनता है, तो वह भी अपने संकल्प से। हम अपने लक्ष्य को सुनिश्चित करें, उसके लिए संकल्पित हो जायें और उसी अनुरूप अपनी सोच को बनाएँ। हम अपनी सोच के बल पर नर-से-नारायण बन सकते हैं। तो हमारी सोच ही हमें नर से नारकी बनाती है। यह भाव का खेल है।
एक बहुत अच्छा पौराणिक प्रसंग है जो आज के सन्दर्भ में बहुत उपयोगी है। भगवान महावीर के जीवन काल का प्रसंग है। राजा श्रेणिक भगवान महावीर के समवसरण में उनके दर्शन लाभ के लिए जा रहा था। रास्ते में देखता है, एक मुनिराज एक पेड़ के नीचे बैठे हैं, पर बड़े गुस्से में हैं। पूरा शरीर तना हुआ है, होंठ फड़फड़ा रहे हैं, आंखें लाल हैं। राजा श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ, मुनि महाराज और इतने गुस्से में क्यों? पर वहाँ तो कुछ बोला नहीं जा सकता। भगवान के समवसरण में गया, भगवान से पूछा कि “भगवान अभी-अभी मैं एक मुनिराज के दर्शन करते हुए आया हूँ। बड़े आग-बबूला थे, इतने क्रोध में थे, आखिर इसकी वजह क्या है और वे किस गति में जाएँगे?” भगवान ने जो जवाब दिया वह बहुत ध्यान देने योग्य है। भगवान ने कहा- “राजा श्रेणिक! जिस समय तुम वहाँ से गुजर रहे थे, उस समय वे तीव्र गुस्से में थे। शास्त्र की भाषा में संरक्षणानंद नामक रौद्र ध्यान में थे और अगर ऐसे ही टिके रहे तो अन्तर मुहूर्त में सातवें नर्क के बन्ध के योग्य हो जाएँगे।” उसने सुन लिया और भगवान का उपदेश जब पूरा हुआ तो राजा श्रेणिक जब लौटा तो देखा वहाँ का तो नजारा ही बदला हुआ था। उन मुनि महाराज को तो केवलज्ञान हो गया और देवता लोग उनका केवलज्ञान कल्याणक मना रहे थे। राजा श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ, भगवान तो नर्क जाने की बात कर रहे थे, उसे केवलज्ञान हो गया, मामला कैसे? क्या? भगवान की वाणी भी गलत होती है? जो माजरा प्रकट हुआ वह बहुत ध्यान देने योग्य है। हुआ ये था कि वह मुनिराज कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे, वे एक राजा थे और अपने अबोध बेटे का राजतिलक करके दीक्षित हो गए थे। उनके दीक्षित होने के बाद उनके मन्त्रियों ने षड्यंत्रपूर्वक पूरा राज्य हथिया लिया और रानी और राजा को राज्य से निकाल दिया। महाराज ध्यान में बैठे थे। कुछ मनचलों ने फब्ती कसी, टोंट कसा, “ये देखो हाथ पर हाथ धरकर के बैठा है, इनका सारा राज हड़प लिया और इन की रानी और इनका बेटा दर-दर के भिखारी बने हुए हैं और ये साधु बना बैठा है।” ये शब्द उनके कान में पड़े, खून खौल गया। “अच्छा, मेरे राज्य को हड़पा है, मेरी रानी और मेरे पुत्र का देश निकाला किया, अभी देखता हूँ।” उसी क्षण में राजा श्रेणिक जा रहे थे और ये गुस्से में एक-एक की हत्या कर रहे थे। उनकी एक आदत थी, जब भी क्रोध आता, अपनी कटार निकालते; और जब भी कटार निकालते तो अपना मुकुट संभालते। गुस्से में वे भूल गये कि मैं मुनि महाराज हूँ। क्रोध में उन्होंने अपनी कटार निकाली और उसी समय हाथ ऊपर गया। चित्त फिर गया- “अरे मैं क्या कर रहा हूँ? कौन राजा और कौन रानी, कौन राजकुमार, किसका साम्राज्य, यह सब तो जड़ है। मैं तो इन्हें छोड़ कर आया हूँ। धिक्कार है मुझे जो मैं जड़ साम्राज्य के पीछे लगा हूँ, अब तो मुझे अपने चेतन साम्राज्य को पाना है।” तत्क्षण अपने मन को धिक्कारते हुये निंदा की, गरहा किया। निंदा-गरहा करते ही सब जीवों से क्षमा मॉंग कर अपने आत्मस्थ हुए, ध्यान में निमग्न हुए और पल में केवलज्ञान हो गया।
ये है भाव, एक भाव जो नरक ले जा रहा था और एक भाव जिसने मोक्ष दिला दिया। हमारी सोच बहुत महत्त्वपूर्ण है, हमें यह देखना है कि मेरे सोच की दिशा क्या है?
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