ऐसा कहा जाता है कि “पिछले जन्म-जन्म के कर्मों का फल हमें इस जन्म में भोगना पड़ता है, चाहे दुःख हो, चाहे सुख हो, वे पुराने कर्मों के फल के रूप में हमें भोगने पड़ते हैं।” तो क्या इस जन्म में हम जो कर्म कर रहे हैं, उसका फल हमें अगले जन्म में मिलेगा या उन कर्मों का फल हमें इसी जन्म में मिलेगा? दूसरा – कई बार ऐसी घटनाएँ होती है जिसमें कई सारे लोग एक साथ मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, जैसे- किसी बस का दुर्घटनाग्रस्त हो जाना या किसी नाव का पलट जाना- जिसमें एक ही साथ में कई घर परिवार उजड़ जाते हैं। ऐसा क्या कारण है कि ये सब परिवारजन अलग-अलग क्षेत्रों से राज्यों से या बिना किसी सम्बन्ध के एक साथ मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं?
बहुत अच्छा सवाल है। देखिये कर्मों के फल के सन्दर्भ में तो मैं सबसे पहले यह कहूँगा कि जो हम कर्म करते हैं उसका फल हमें तत्काल भी मिलता है और कुछ काल बाद भी मिलता है। कुछ कर्मों का फल तत्काल मिलता है और कुछ कर्मों का फल लंबे समय तक मिलता रहता है। उदाहरण के लिए मैं आप से कहता हूँँ कि आपने किसी भूखे को भोजन कराया, अच्छा कर्म किया। आपको क्या मिला? “खुशी मिली।” कितनी देर बाद मिली? “तुरन्त मिली।” यह किसका फल है? “अच्छे कर्म का फल है।” किसी के व्यक्ति ने किसी की कोई चीज चुराई, यह कैसा कर्म है? “बुरा कर्म है।” उसके मन में खटका कब आया? “तुरंत।” “भैया, चुरा तो लिया कही उसकी नजर न पड़ जाए।” खटका आया ना? कितनी देर बाद खटका आया? तुरंत। मतलब समझ गए ना? अच्छे का फल भी तुरन्त मिला और बुरे का फल भी तुरन्त मिला। तो यह धारणा गलत है कि हमारे कर्मों का फल तुरन्त नहीं मिलता। कर्मों का फल तुरन्त मिलता है।
अच्छे और बुरे कर्मों का तात्कालिक फल भी मिलता है और पारंपरिक फल भी मिलता है। पुण्य का तात्कालिक फल है- सन्तुष्टि; और पुण्य का पारंपरिक फल है- सुख समृद्धि। पाप का तात्कालिक फल है सन्ताप; और पारंपरिक फल है दुःख दारिद्र। तो यह चीजें चलेंगी। हम जो भोग रहे हैं, वर्तमान का भी भोग रहे हैं, पुराना भी भोग रहे हैं। वर्तमान अगर प्रभावी हो जाए तो पुराने को dilute कर देता है और पुराना अगर भारी है, तो वर्तमान को कमजोर बना देगा। तो चीज़े चलती रहती हैं एकसाथ।
लेकिन यह अच्छी व्यवस्था है कि कर्म का पूरा फल एक साथ नहीं मिलता। थोड़ा टाइम मिल जाता है, तो उसमें आत्मा को इतना अवसर मिल जाता है कि उस कर्म को जड़ से उखाड़ दे। कर्म का रस निचोड़ दे। कर्म सिद्धान्त की भाषा में अगर हम कहें तो हम उस पूरे के पूरे कर्म के स्वरूप को ही परिवर्तित कर सकते हैं। उसे बिना भोगे भी गला सकते हैं। यह सुविधा कब है? जब अन्दर डिपाजिट रहे। तो मैंने अतीत में कितना कर्म बांधा यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि मैं वर्तमान में कैसा हूँँ, यह महत्त्वपूर्ण है। अगर मैं वर्तमान में अच्छा कर रहा हूँँ तो मुझे दोहरा लाभ मिल रहा है। अतीत के पाप को साफ भी कर रहा हूँँ और उज्जवल भविष्य की नींव भी रख रहा हूँ। इसीलिए हमेशा अच्छा करने का उत्साह रखना चाहिए। यह तो एक बात हुई।
दूसरी बात कि कई बार दुर्घटनाएँ होती हैं और हम इन दुर्घटनाओं को कर्म से जोड़ते हैं। यह बात पूरी तरह सही नहीं है। जीवन में जो घटनाएँ घटती है उनमें कर्मों का रोल होता है, इसमें कोई संशय नहीं है, पर सारी घटनाओं को कर्म से मत जोड़िये। अभी महामारी के प्रकोप में बहुत लोग मारे गए, बहुतो का घर उजड़ा। लोग पूछते है “महाराज जी, यह कौन सा कर्म उदय आ गया?” यह कर्म नहीं है, यह संयोग है। समझ गए? सबकुछ कर्म से ही होता है यह अवधारणा सही नहीं है। कर्म से होता है, संयोग से भी होता है, दैव्य से भी होता है, स्वभाव से भी होता है, कालवश भी होता है। तो इन घटनाओं को हम संयोग के रूप में भी देख सकते हैं। और यदि कर्म की दृष्टि से देखें तो हम इसे सामूहिक पाप के फल के रूप में भी देख सकते हैं। कई जगह हम लोग सामूहिक रूप से पुण्य भी करते हैं और सामूहिक रूप से पाप भी करते हैं। अभी यहाँ हम सब एकत्र हैं, एक अच्छा कर्म कर रहे हैं, तो सबको क्या बन्ध रहा है? पुण्य बन्ध रहा है। यह सामूहिक पुण्य है। और अगर बुरे कार्य में लग गए सभी तो एकसाथ क्या बाँधेंगे? सामूहिक पाप। तो हम सभी का सामूहिक पुण्य और सामूहिक पाप वैसे संयोग बनाएगा कि अगर सामूहिक पाप का उदय एक साथ आएगा तो ऐसा संयोग आएगा कि सब एक साथ चपेट में आ जाएगें। संयोग बहुत बड़ी ताकत रखता है। इसलिए जीवन में घटित हर घटना को कर्म का योग या संयोग मानकर स्वीकार लेने वाला कभी दुखी नहीं होता। क्योंकि यह जीवन का चक्र है।
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