क्या धर्म हमें कट्टर और असहिष्णु होना सिखाता है?

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शंका

मेरे मन में बार-बार सवाल आता है कि क्या धर्म ईश्वरीय, पूजा-पाठ यही है या इससे आगे कुछ है? ऐसा क्या है कि धर्म कट्टरता पैदा करता है? धर्म में कहाँ चूक रह जाती है कि जो समाज कट्टर होता है, व्यक्ति कट्टर होता है और असहिष्णु हो जाता है?

समाधान

आपने बहुत अच्छी बात की ईश्वरोपासना या पूजा-पाठ तक ही धर्म है या धर्म कुछ और है। मेरा यह कहना है कि धर्म पूजा-पाठ, ईश्वर उपासना धर्म है पर केवल इतना ही धर्म नहीं। मेरे देखे धर्म का चार रूप है। पहला रूप है उपासना, दूसरा रूप है नैतिकता और प्रमाणिकता, तीसरा रूप है साधना, चौथा रूप है आध्यात्मिक जागरण। 

आजकल जो धर्म का पहला रूप है वह रूढ़ हो गया। ईश्वर की उपासना पूजा-पाठ हम सबको बड़ा आसान दिखता है और लोग बड़ी तत्परता से उसे करते भी हैं। जब पूजा-पाठ हमारे जीवन की रूटीन मात्र बनकर रह जाती है, तो उससे जीवन का कोई रूपांतरण हो, कोई जरूरी नहीं। हालाँकि, यह सत्य है कि जिस व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना जागृत हो जाए उस व्यक्ति के जीवन में यह धर्म उपासना है आमूलचूल परिवर्तन लाते हैं सकारात्मक बदलाव घटित करते हैं। पर जो लोग आध्यात्मस्पर्शी न होकर केवल पूजा-पाठ में ही रूढ़ हो जाते हैं इसे दूसरे शब्दों में कहें केवल धार्मिक कर्मकांड में ही उलझ के रह जाते हैं और उनके अन्दर धार्मिक कट्टरता तो दिखती है पर धर्म नहीं। क्योंकि उन्होंने धर्म के बाहरी स्वरूप को ही धर्म समझ रहे हैं तो मैं सभी लोगों से कहना चाहूँगा- धार्मिक क्रियाएँ करो क्योंकि धर्म-आराधन का यह सबसे सरलतम रास्ता है पर उसके प्रयोजन को सामने रखकर के करो। हम पूजा-पाठ कर क्यों रहे हैं पुण्य कमाने के लिए? नहीं! जीवन को पुण्य बनाने के लिए। पुण्य कमाने के लिए हम पूजा-पाठ करें तो पता नहीं पुण्य कमा पाए या नहीं, पर जीवन को पुण्य बनाने के लिए करेंगे तो पुण्य भी कमाएँगे और जीवन को धन्य भी बनाएँगे। अपने जीवन को पवित्र बनाएँ जीवन को रूपांतरित करने के भाव से हमें धर्म करना चाहिए। 

नैतिकता और प्रमाणिकता को हमें अपना धर्म मान करके चलना चाहिए हमारा कर्तव्य अगर हमारे जीवन में नैतिकता न हो प्रमाणिकता न हो तो ये हमने धर्म का बाना भर पहना है धर्म नहीं। साधना, त्याग, तप, सयंम जो दिखता है वह भी एक धर्म का रूप है और ऐसे लोगों को हम लोग बहुत सम्मान देते है, आदर देते हैं इनमें नैतिकता भी होती है प्रमाणिकता भी होती है उपासना भी दिखती है। लेकिन त्याग, तप, सयंम साधना करने वाले व्यक्ति के भीतर भी अगर आध्यात्मिक दृष्टि न हो तो ऊपर का तपस्वी साधु तो बड़ा होता है लेकिन भीतर से वह उतना ही क्रोधी हो सकता है, अभिमानी हो सकता है या अन्य दुर्बलताओं से ग्रसित हो सकता है उसकी साधना फलीभूत नहीं होती। 

धर्म का मूल तत्त्व है आध्यात्मिक जागरण जब हमारी अन्तस चेतना जगती है और हमारे केंद्र में हमारी आत्मा स्थापित हो जाती है। तब कहीं जाकर हमारा असली धर्म हमारे भीतर प्रकट होता है जो हमें हर पल न केवल सावधान करता है तभी तो अन्दर से अनुशासित करता है हमारे जीवन को सन्तुलित बनाता है और हमारे जीवन के सुख का मार्ग प्रशस्त करता है। तो हम ऐसे जीवन को जीने के लिए धर्म के आन्तरिक स्वरूप को समझें। कोई भी धर्म कट्टरता की बात नहीं करता दृढ़ता की बात जरूर करता है। अपने धर्म में दृढ़ता रखनी चाहिए, कट्टरता नहीं। कुशलता के साथ सबके साथ मेलजोल का भाव रखना चाहिए।

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