बहुत से लोग बहुत अच्छे से मन्दिर में जिनपूजा-अर्चना करते हैं, फिर अन्य देवी-देवताओं की भी उपासना करते हैं। तो ऐसे में उनके बच्चे देखते हैं कि उनके माता-पिता दो नावों में सवार हैं। तो वे सोचेंगे कि क्यों न हम आसान रास्ता पकड़ें जिससे कि हमें रात्रि भोजन का त्याग न करना पड़े और न कुछ और त्याग करना पड़ेगा?
दो नावों में सवार व्यक्ति कभी भी सफल नहीं होते और उनकी नैया डूबती ही है। और जो उनके साथ सवार होते हैं, उन सबकी भी नैया डूबती है। व्यक्ति को धर्म केवल परम्परा से नहीं करना चाहिए, विवेक से करना चाहिए। जो लोग परम्परा से बन्धकर के धर्म करते हैं या मां-बाप से प्राप्त धार्मिक संस्कारों वश धर्म करते हैं तो उन सब के साथ ऐसी विसंगतियाँ दिखती हैं। जो आत्मा के स्वरूप को समझकर आत्म-कल्याण की भावना से भरकर धर्म करते हैं, उनके जीवन में ऐसा कुछ नहीं होता। हमें बस ऐसे लोगों को धर्म के मर्म का बोध कराने की आवश्यकता है। यदि वे धर्म के मर्म को जान जाएँगे तो सारी स्थितियाँ स्वत: ठीक हो जाएंगी।
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