हम लोग जब मन्दिर जाते हैं तो हम भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि “आपको जो पदवी मिली है वह हमें भी मिले।” परन्तु जब हम ‘शांतिधारा’ बोलते हैं, तो उसमें पंक्तियाँ आती हैं कि “कुल गोत्र धन-धान्य वस्तु सदास्तु”। इस पंक्ति का मतलब है कि कुल गोत्र और धन धान्य सदा ऐसा ही बना रहे। एक तरफ तो हम कह रहे हैं कि “हमें भी भगवान की तरह पदवी मिले” और दूसरी तरफ कह रहे हैं कि “धन-धान्य सदा ऐसा बना रहे”। कृपया मार्गदर्शन दें।
इसके आशय को समझो। भगवान की भक्ति करते हैं तो हम व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं चाहते। भगवान के गुणों के प्रति अनुराग चाहते हैं और अपने मन को निराकुल बनाना चाहते हैं। लेकिन जब हम शांतिपाठ करते हैं तो शांतिपाठ में हम कुछ कामना करते हैं। किसकी कामना करते हैं?- सम्पूर्ण लोक में शांति की कामना। लोक में शांति कैसे होगी? केवल शांति की बात करने से तो नहीं होगी। लोक में शांति तब होगी जब आपद विपद दूर रहेगी। सब प्रकार की अनुकूलताएँ होंगी। इसलिए कहते हैं कुल गोत्र धन-धान्य ऐश्वर्य आदि की अभिवृद्धि हो-केवल मेरी नहीं हो-सर्वेषाम्, सबके जीवन में मंगल हो, सबका कल्याण हो, सब सुखी हो, सब फलते-फूलते रहें। यह बड़ी ऊँची भावना है। यह परमार्थिक भावना, हम अपने लिए नहीं मॉंग रहे। क्या हम चाहते हैं कि कोई दुखी रहे? क्या हम चाहते हैं किसी का कुल नष्ट हो? क्या किसी का गोत्र छिन्न-भिन्न हो जाए? क्या हम चाहते हैं कोई दीन-दरिद्री बने? “हे भगवान, हम तो चाहते हैं धरती पर जो कुछ भी रहे, जो कोई भी जन्मे, फलता-फूलता रहे, हँसता-खेलता रहे, यह कामना है।
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