एक पत्रिका में यह पढ़कर मैं बहुत स्तब्ध रह गया कि भारत में हर तेरहवाँ व्यक्ति गौ माँस खाता है। हमारे देश में यज्ञ, मन्त्र जाप और अन्य धार्मिक अनुष्ठान जैसे बहुत सारे कार्य होते हैं, फिर भी लोगों की भावनाओं में बिल्कुल परिवर्तन क्यों नहीं आता?
देखिये, पहली बात तो मैं कहूँ कि शायद यह आकड़ा सही नहीं है। यह पॉलिटिकल स्टंट का भी परिणाम हो सकता है और वर्तमान में बीफ, यह पूरी तरह पॉलिटिकल मुद्दा बन गया है। हम नहीं कह सकते कि तेरा में एक होंगें। 13 में एक मतलब लगभग 7 परसेंट 8 परसेंट। इतने सारे लोग नियमित इस तरह के भोजन करने वाले नहीं है। दूसरी बात, लोगों की अपनी-अपनी परम्पराएँ है, अपनी-अपनी मान्यताएँ है, कोई धार्मिक विश्वास, उससे ग्रसित होकर के भी लोग इस तरह के कार्य करते हैं। आपने पूछा है कि जब हम इतने धार्मिक अनुष्ठान आदि करते हैं, तो लोगों का हृदय परिवर्तन क्यों नहीं होता? निश्चित, आप देखे कि धार्मिक अनुष्ठान और पापानुष्ठान, दोनों का तुलनात्मक रूप से आप अध्ययन करेंगे, तो पापानुष्ठान ज़्यादा है और धार्मिक अनुष्ठान कम। अब बताओ प्रभाव किसका पड़ेगा? देश में 36000 क़त्लखानों में रोज कितने सारे मूक पशुओं की कराह गूँजती है। प्रतिदिन लाखों पशु को मौत के घाट उतारा जाता है। उनकी कराह की वेदना के आगे हमारे मन्दिरों की घंटी की ध्वनि और मन्त्रोच्चार तो एक तरफ दब जाती है। वो वेदना जिसके बारे में ईषोलॉजी एक पद्धति विकसित हुई जिस पर बताया गया कि यह भूकम्प का कारण है। कितनी तादाद में पशुओं की हत्या करने से कितने रिक्टर पैमाने पर धरती का कम्पन होता है, यह तक बताया है। आज भी आप लोगों ने भूकम्प का अनुभव किया। भारत से बाहर हुआ, सुनते है अफगानिस्तान में हुआ। पाकिस्तान में हुआ? जहाँ भी हुआ, यह क्या है? पाप की बहुलता भी इसमें एक कारण है। तो कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म अनुष्ठान से ज़्यादा होने वाले पापानुष्ठान के कारण यह गड़बड़ियाँ है। दूसरा, अभी नेपाल में भूकम्प आया, लोगों ने कहा, उसको जोड़ा भी, यह बात बहुत चर्चित हुआ कि वहाँ एक जो सामूहिक बलि दी गई, कहीं न कहीं इस घटना को उससे जोड़ा गया। हालाँकि, मैं ऐसे संयोगों को नहीं जोड़ता पर ईषोलॉजी; जो एक बजाज, इब्राहिम और एक कुरेशी करके तीन विद्वानों ने भूकम्प और जीव प्राणी वध के साथ उसका अपना शोध लिखा, वो सभी को समझने लायक है। धर्मानुष्ठान तो दो पर्सेंट लोग करते हैं और पापानुष्ठान तो 98% लोग करते हैं। और जो 2 परसेंट लोग भी धर्मानुष्ठान करते हो, 24 घंटे में घंटे – 2 घंटे करते हैं। और उनका 20-22 घंटा पापानुष्ठान में होता है; पलड़ा किसका भारी होगा? मैं बताऊँ, वर्तमान में जितना पाप हो रहा है उसका प्रकोप तो ऐसा होता कि धरती धँस जाती, और आदमी उसमें दफन हो जाता। हम लोग बचे हुए है, यह धर्मानुष्ठान का ही प्रताप समझना चाहिए।
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