हस्तिनापुर में जिन्होंने मन्दिर बनवाये थे, उन्होंने हिंदुस्तान में शिखरबंद बावन मन्दिर बनवाये थे। उन्होंने उसको बचाने के लिए एक मस्जिद भी बनवाई, जो दिल्ली के चाँदनी चौक में सुनहरी मस्जिद के नाम से आज भी मशहूर है, उसमें क्या कुछ पाप उनको लगा होगा?
अनिल जैन, दिल्ली
हस्तिनापुर में जो जैन मन्दिर बना है, वो जैन परम्परा के प्रति समर्पण की पूर्ण अभिव्यक्ति है और विश्व का एक अनुकरणीय उदाहरण है। मेरे ख्याल से वैसा उदाहरण दूसरा नहीं हुआ। आज आपसे मुझे सुन करके बहुत अच्छा लगा, एक नई जानकारी भी मिली कि हस्तिनापुर के मन्दिर के निर्माता सेठ सुगम दास जी ने देश भर में बावन मन्दिर बनाए और एक मस्जिद बनाई – सुनहरी मस्जिद।
हस्तिनापुर में मन्दिर कैसे बना है, इसकी जानकारी पूरे देश को होनी चाहिए। हस्तिनापुर में शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ भगवान की त्रिकल्याणक भूमि होने के कारण समाज के लोग सदा से मन्दिर बनाना चाहते थे पर वहाँ के कुछ धर्म द्वेषी लोग वहाँ जिन मन्दिर बनाने से रोक लगाते थे। उन दिनों दिल्ली में सेठ सुगम दास जी, जो राजा हरजसराय जी के बेटे थे, उनके मन में हस्तिनापुर के मन्दिर के निर्माण की बड़ी प्रबल ललक थी और वे बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। संयोग ऐसा बना कि एक बार उस पूरे क्षेत्र में अकाल पड़ा और राजा ने अपने दीवान को सेठ सुगम दस जी के पास एक लाख रुपया उधार लेने के लिए भेजा। उस जमाने में, सम्भवतः 1835 की बात है, एक लाख रूपया बहुत बड़ी रकम थी। सेठ साहब ने अपने मुनीम को बुलाया। उन्हें कुछ हिदायत दी और एक लाख रुपया राजा का दीवान सेठ साहब के यहाँ से ले गया। समय अनुकूल हुआ, ब्याज समेत एक लाख रुपया राजा ने सेठ के यहाँ भेजा। जब राजा का दीवान सेठ जी के यहाँ एक लाख रुपया जमा करने के लिए आया, सेठ जी के मुनीम ने कहा, हमारे यहाँ आपका एक रुपया है ही नहीं, हम आपसे पाते ही नहीं तो हम कैसे लें? राजा के दीवान को आश्चर्य हुआ कि ये क्या? या तो इनके यहाँ इतना ढेर है कि कुबेर भी हार जाएँ या इतना अन्धेर है कि सब कुछ डूबने वाला है। उसने कहा- “भाई, राजा साहब ने कहा है और आपने दिया है, आपके पास पैसा फालतू हो सकता है, हमारे यहाँ पैसा फालतू थोड़ी है।” बात सेठ जी तक गई। सेठ जी ने अपने मुनीम को कहा कि “मुनीम साहब, दीवान जी आए हैं और ये कह रहें हैं तो उस दिन का रोकड़ निकाल कर देखो, इनका क्या जमा है, आखिर दीवान जी कोई झूठ थोड़ी कहेंगे।” रोकड़ निकाल करके देखा तो उस रोकड़ में लिखा था, ‘हस्तिनापुर में जिन मन्दिर निर्माण के निमित्त, राजा के पास से एक लाख रुपया धरोहर के रूप में जमा किया गया।’ राजा के दीवान ने सेठ जी से कहा, “देखो, एक लाख रुपया है।” सेठ बोले “नहीं-नहीं, आप देखिए इसमें क्या लिखा है, ये मन्दिर के निमित्त धरोहर के लिए रखा गया है।” दीवान बोला- “एक लाख है ना, आप ले लीजिये।” सेठ बोले “नहीं, हम नहीं ले सकते क्योंकि ये मन्दिर के निमित्त का रुपया है और वो तो हमारे लिए निर्माल्य हो गया है। आप राजा साहब से कहिये कि अगर वो चाहें तो हमारे यहाँ हस्तिनापुर में मन्दिर बनवा दें और रुपयों की जरुरत है, तो हम रुपया लगा देंगे।” उसका पता जब राजा को चला, राजा बड़ा प्रभावित हुआ और राजा ने फिर वहाँ मन्दिर बनाने की व्यवस्था की। इस प्रकार से हस्तिनापुर का मन्दिर बना।
अगर उस सेठ जी को मस्जिद बनाने के लिए पैसा लगाना पड़ा होगा तो वो उनकी कोई राजनीतिक मजबूरी रही होगी। समसामयिक परिस्थितियाँ ऐसी रही होगी। इस समय धार्मिक सहिष्णुता का परिचय देते हुए, राजाओं की आज्ञा का पालन करने की बाध्यता होने के कारण उन्होंने मस्जिद बनाई होगी, ये एक परिस्थितिगत समझौता है। लेकिन आस्था से वे कट्टर दिगम्बर जैनी थे। उनके जीवन के बारे में अगर लोगों को जानना है, तो अयोध्या प्रसाद गोयलीय के एक कृति है “जैन जागरण के अग्रदूत” उनमें उन महान व्यक्तियों का वर्णन है। उन व्यक्तियों के जीवन की घटनाओं का उल्लेख है जिन्होंने जैन संस्कृति को पिछले तीन-सौ सालों में सींचा है और संभाला है, जरूर पढ़ना चाहिए। “जैन जागरण के अग्रदूत” पंडित अयोध्या प्रसाद गोयलीय, संभवतः भारतीय ज्ञान पीठ से प्रकाशित है।
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