शंका
कल हमने महावीर जी में प्रतिमा के दर्शन किये, तब हम मन्दिर में अकेले थे। ऐसा महसूस हुआ कि प्रभु के श्रीवत से तरंगे निकल रहीं हैं और हम में समाहित हो रहीं हैं, रोम-रोम पुलकित हो उठा और अश्रु धारा बह निकली। इसका क्या तात्पर्य है महाराज श्री?
समाधान
भगवान की भक्ति करते हुए अश्रु की धारा तो निकलनी ही चाहिए। ये भक्ति का चरमोत्कर्ष रूप है, होना चाहिए। आचार्य पूज्य पाद महाराज ने भगवान की भक्ति करते हुए लिखा
रूपं ते निरुपाधिसुन्दरमिदं पश्यन् सहस्रेक्षणः
प्रेक्षाकौतुककारि भगवन् नोपेत्यवस्थान्तरम्।
वाणीं गद्गदयन् वपुः पुलकयन् नेत्रद्वयं स्रावयन्
मूर्द्धानं नमयन् करौ मुकुलयन् चेतोऽपि निर्वापयन्।।
“गद-गद वाणी, पुलकित तन और आँखों से आसूँ की धार बहना भक्ति का चरमरूप है, ये होना चाहिए।
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