धार्मिक कार्यक्रम करते समय अधिकतर लोगों को आकुलता रहती है। मन्दिर में दर्शन, पूजन, अभिषेक करने में आकुलता रहती है। इसमें कैसे बदलाव या सुधार हो सकता है?
राजेश बाकलीवाल
ये आकुलता उन लोगों को ज़्यादा होती है जो क्रिया में रूढ़ हो जाते हैं। जिनकी धारणा है कि ‘मैं जितनी ज़्यादा पूजा करूँगा उतना पुण्य मिलेगा, मैं जितना ज़्यादा खड़ा रहूँगा, उतना ज़्यादा पुण्य मिलेगा’- ये लोग हड़बड़ी ज़्यादा करते हैं और हड़बड़ी में गड़बड़ होती है। कभी भी कोई क्रिया करें, उस क्रिया के प्रयोजन को समझें। मैं तो कहता हूँँ हड़बड़ी में की गई दस पूजाओं से तसल्ली से की गई एक पूजा ज़्यादा प्रभावी होती है। लोग पूरी पूजा तो फिर भी तसल्ली से कर लेते हैं, आखिरी का शांति पाठ जिसमें सबसे ज़्यादा तसल्ली की आवश्यकता है, उसे बहुत शांति से करें। शांति पाठ पूरी पूजा का सार है। पूजा का मूल ध्येय है। और उसके बाद-
शास्त्रों का हो पठन सुखदा, लाभ सत्संगति का, सद्वृत्तों का सुजस कहके दोष ढाकूँ सभी का,
बोलूँ प्यारे वचन हित के, आपका रूप ध्याऊँ, तौलों सेऊँ चरण जिनके, मोक्ष जो लो न पाऊँ।
ये प्रार्थना करो और ये ऊर्जा लेकर जाओ, तो आनन्द है। इसलिए हड़बड़ाना अच्छी बात नहीं है। यह पाप का कारण तो नहीं होता है, लेकिन पुण्य थोड़ा पतला हो जाता है।
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