मेरा प्रश्न मोक्षशास्त्र (तत्वार्थ सूत्र) के छठे अध्याय में सूत्र नंबर 13 से है, “केवलिश्रुतसंघ धर्म देवावर्णवादो दर्शनमोहस्य” तो यहाँ टीकाकार ने देवों की जो बात कही है कि हमें देवों के बारे में यह नहीं बोलना चाहिए कि वह शराब का सेवन करते हैं, माँस का सेवन करते हैं, त्रिशूल रखते हैं या तलवार रखते हैं तो यह अवर्ण वाद में आएगा और दर्शन मोहनीय कर्म का बन्ध होगा। तो ‘क्षेत्रपाल’ के बारे में समाज में दो टुकड़े हैं तो एक वर्ग है वह ज्य़ादा ही अवर्ण वाद करता है। तो उनको कौनसा दोष लगता है?
अवर्ण वाद करने से दर्शन मोहनीय का बन्ध तो होगा ही। दूसरी बात, जिनेन्द्र भगवान वीतराग देव के समपक्ष आप किसी भी देवी देवता को बनाते हैं तो वह देव मूढ़ता है। वहाँ सम्यक्त्व है ही नहीं। वह मिथ्या दृष्टि है और मिथ्या दृष्टि तो दर्शन मोहनीय का बन्ध करेगा ही, वह अपने संसार का विस्तार करेगा। मैं तो एक ही पंक्ति इस सन्दर्भ में कहना चाहता हूँ कि बहुत कठिनाई से और बड़ी दुर्लभता से जिन शासन की शरण मिली है, और जिन शासन की शरण में आने के बाद वीतरागता को अपने जीवन का आदर्श बनाओ। अगर वीतराग की शरण में आने के बाद भी वीतरागता कि तरफ़ हमारा झुकाव नहीं बढ़ा तो समझ लेना अभी संसार बहुत लम्बा है।
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