धन के बिना धर्म नहीं?
यह जो अवधारणा है गलत है। धन के बिना धर्म नहीं, यह मत बोलो, धन के बिना धार्मिक आयोजन नहीं, यह आप बोल सकते हैं। धर्म अलग है, धार्मिक आयोजन अलग है। बात समझ रहे हैं। धार्मिक आयोजन के लिए धन चाहिए, आप यहाँ बैठे बिना पंडाल के कहाँ बैठते, बिना माइक के आप कहाँ सुनते? धार्मिक आयोजन में धन की जरूरत होती है, धर्म करने के लिए धन की कौन सी जरूरत? आपको णमोकार जपने में पैसा लगता है? भगवान की पूजा करने में पैसा लगता है? फिर आप कैसे कहते हैं कि सब जगह धन, धनी की पूछ होती है? धन की कोई आवश्यकता नहीं है धर्म करने के लिए, धर्म तो एक पशु भी कर लेता है। हो सकता आपसे अच्छा धर्म करके सद्गति का पात्र बन जाए, समझ गए। बात को थोड़ा गहराई से समझिये। एक पशु भी धर्म कर सकता और हो सकता आपसे भी अच्छा धर्म कर ले इसलिए यह अवधारणा हटा दीजिए कि धर्म करने के लिए पैसा चाहिए और ये हीन भावना अपने मन से निकाल दीजिए कि मेरे पास धन नहीं है, तो मैं धर्म कैसे कर सकता हूँ। धर्म आप कैसे भी कर सकते, हो सकता है आप ऐसा धर्म कर ले, जो अच्छा- अच्छा पैसा वाला न कर सके। जहाँ तक धार्मिक आयोजन की बात है, तो धार्मिक आयोजन तो बिना पैसे के होते नहीं और कई बार लोगों का एक आरोप होता है कि प्राय: पैसे वालों को प्रमुखता दी जाती है, उन्हीं को आगे बढ़ाया जाता है। मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ धार्मिक आयोजन में होने वाले खर्च के लिए अगर कोई व्यक्ति कंट्रीब्यूशन करता है, तो क्या आप उसको धन्यवाद नहीं दोगे? किसको धन्यवाद दोगे, आपको धन्यवाद देना चाहिए, उसको आगे बढ़ाना चाहिए, उसकी अनुमोदना करनी चाहिए, इसलिए कि एक आदमी के निमित्त से हजारों लोगों का धर्म -ध्यान हुआ। आप शिखर जी आए, दिल्ली वालों ने आपकी भोजन की व्यवस्था कर दी, निश्चिंत हुए नहीं तो यहाँ रोटी खोजने में तुम्हारा घंटा निकल जाता। बिना टंकी फुल किए पहाड़ पर चढ़ते कैसे? अगर ऐसे व्यक्ति को मंच पर सम्मानित किया जाए तो तुम्हें तकलीफ क्या है? ऐसे व्यक्ति की सदैव अनुमोदना करना और धनी का सम्मान नहीं होता, धन के त्यागी का सम्मान होता है। कोई कितना ही पैसा वाला बना रहे, वह पैसा वाला अपनी जगह, उसको कौन पूछता है? जो उनमें से त्याग करता है, उनको न पूछते हो और आपने किस की प्रशंसा की, किस का सम्मान किया? उसके दान का सम्मान किया, कोई अच्छे कार्य के लिए दान दिया, उसकी मंच पर घोषणा हुई, आपने तालियाँ बजाकर उसकी अनुमोदना की तो आपने पुण्य पाया कि नहीं पाया। कोई दान करें, दानी की सदैव अनुमोदना करो। तुम्हारी अनुमोदना से भी तुम्हें दान देने का पुण्य प्राप्त होगा।
अरे, एक बात बताऊँ, किसके निमित्त से पुण्य प्राप्त हुआ तुमको, जिसने दान दिया, तुमने कुछ लिया नहीं, दिया नहीं, केवल ताली बजाई और ताली बजा करके पुण्य कमा लिए। एक ने दान दिया और तुमने उसकी अनुमोदना करके पुण्य कमाया और इसका छठवां भाग उसको और बोनस में मिल गया, जिसने दान दिया। तुमको जब पुण्य मिला, जिसके निमित्त से पुण्य मिला, उसका छटवां हिस्सा उस आत्मा को मिल जाएगा। इतने बड़े समारोह में दान दोगे, उसका जितना लोग अनुमोदन करेंगे, उतना बोनस तुमको मिलेगा। समझो, एक जगह सावधानी रखना, दान मान के लिए मत करना। दानी को मान दो पर दान करके मान की चाह मत रखो। बात को समझो, दानी को मान दो, मान दोगे तो दान की परम्परा चलेगी। हमारी संस्कृति में एक शब्द आता है कृतज्ञता, कृतज्ञता क्या कहलाती है? कृतज्ञता तो देना चाहिये, आप लोग बहुत कृपण हैं, कंजूस है, कृत्घ्नी है, यह गलत बात है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति दान देता है, अगर कोई व्यक्ति धर्म के क्षेत्र में, धार्मिक आयोजनों में, अपना धन खर्च करता है, तो उसके उस सतकार्य की अनुमोदना जरूर करनी चाहिए, ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। एक बार मुझसे कहा गया कि महाराज आप कहते जरूर है कि धर्म के क्षेत्र में सब बराबर है पर प्राय: देखा जाता है पैसे वालों को ही आगे बिठाया जाता है, तो मैंने कहा मुझे लगता है तुम्हें धर्म से अनुराग नहीं है। तुम को आगे आने की इच्छा है और जो आगे आ गये, उनसे ईर्ष्या है। ये तो महा अधर्म है। आगे आने पर ही धर्म होगा ये अवधारणा क्यों रखे हो? आगे आने पर नाम होगा, धर्म नहीं, धर्म तो पीछे भी हो सकता है, अन्तिम पंक्ति में भी हो सकता है जो यहाँ उपस्थित नहीं आया, वह भी कर सकता है। कभी ऐसा नकारात्मक चिन्तन मत करना, धार्मिक कार्य में अपनी शक्ति के अनुरूप द्रव्य लगाना और नहीं लगा पा रहे हो तो जो लगाया, उसकी अनुमोदना करना।
एक नियम ले लो आज शिखरजी से जाते समय, कहीं मैं जाऊँगा, कोई धार्मिक आयोजन में शरीक होऊँगा, वहाँ की व्यवस्था का लाभ उठाने के बाद निकलते समय एक मैसेज थैंक्स का जरूर दूँगा, आपने बहुत अच्छी व्यवस्था की, बहुत-बहुत धन्यवाद। आजकल लोग कार्यकर्ताओं और आयोजकों को गाली देते हैं, प्रशंसा कोई नहीं करता, यह गलत परम्परा है कि नहीं। मैंने बहुत कार्यकर्ताओं का दर्द सुना, यह आप अपनी कृपणता दूर कीजिए, तब काम होगा। पैसा वाले का सम्मान नहीं होता पैसा त्यागने वाले का सम्मान होता है। वर्णी जी थे तब वर्णी जी के भक्त थे, थोड़ा मुँह लगे हुए थे, पैसा वाले थे। वर्णी जी त्याग की महिमा बताते थे तो वो उनसे मजाक किया करते थे। एक बार उनको जाना था, रास्ते में नदी पड़ी, नाव से पार होना था। दोनों नाव पर सवार हो गए और जब नाव से पार हुए तो आखिरी में नाविक को जो पैसा देना था, उन्होने अपनी जेब से रुपए निकाले और नाविक को दे दिया। तब उनने फिर वर्णी जी से चुटकी ली, देखा महाराज, आज अपनी जेब में रुपया नहीं होते तो अपन ये पार नहीं आ पाते। बुंदेलखंडी में बोला, महाराज अपने जेब में रुपया नहीं होते तो हम इस बार नहीं आ पाते। वर्णी जी ने कहा- सुनो, अगर रुपया जेब में धरे होते तो यह पार नहीं आ पाते। जेब में रुपया होने के कारण या जेब से रुपया निकला तब आए। मैं समझता हूँ अब इस विषय में ज़्यादा बोलने की जरूरत नहीं।
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