मुनि को आहार किस सावधानी से देना चाहिए?

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शंका

महाराज श्री को जब भी आहार देते हैं इतनी भीड़-भाड़ होती है, महाराज क्या लेते हैं, हम क्या देते हैं, कभी बनाते नहीं हैं, न कुछ करते हैं, तो इसमें क्या पुण्य मिलता है?

सुशीला जी पाटनी

समाधान

देने का हाल तो ये है कि एक बार एक चौके में गया, आहार शुरू हुआ, एक दिन का उपवास था, दूसरे दिन का पहले ग्रास में अन्तराय था। आहार के लिए खड़ा हुआ, सौ लोग थे चौके में, जिसके हाथ में जो आया वो दे रहा। उन दिनों मैं हरी मिर्ची लेता था, उसके हाथ में मिर्ची का कटोरा था, इतना बड़ा चमचा था। पहले ही ग्रास में चमचा भर के दे दिया। अब हमने भी कहा- ठीक है, अब खाओ। यह विवेक है, दो दिन का उपवास, गर्मी का समय, अब बोलो क्या करूँ? अब लड़ाई कर नहीं सकते, मिर्च को एक तरफ रखा, थोड़ा-थोड़ा करके हमने जब तक वह मिर्च खत्म नहीं हुई कुछ भी नहीं ले सका। मिर्च के साथ रोटी खाई, पानी पिया। उसके बाद की कहानी तो आप अनुमान लगा ही सकते है। लोगों को विचार- विवेक रखना चाहिए, उस समय वह सब भूल जाते है। व्यवस्थित हो करके व्यक्ति आहार दे। आहार देने की भावना उत्तम है पर यह सोचना चाहिए कि साधु 24 घंटे में एक ही वक्त आहार लेता है, आपके आहार देने से महत्त्वपूर्ण साधु के आहार की अनुकूलता को बनाना है। पंक्ति बना करके दो, क्रम से दो तो सबको नंबर मिल जाता है। मैं तो रोज आखिरी में पूछता हूँ कोई बचा तो नहीं? बच जाएँ तो एक में चार के हाथ लगवा लो, ले लो। व्यवस्था तो बनती है, तो इसलिए कृत, कारित, अनुमोदन का ध्यान रखकर काम करना चाहिए और ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिसमें अव्यवस्था हो।

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