मंदिर में पहली वेदी में जितना उत्साह रहता है, उत्तरोत्तर कम क्यों होता जाता है?

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शंका

मन्दिर में बहुत सारी वेदिया होती है परन्तु जो भाव मूल वेदी में लगते हैं, उत्तरोत्तर वेदियों में भाव घटते जाते हैं। पहली वेदी के दर्शन भाव- भावना से करते हैं और बाद को निपटाते हैं, ऐसा क्यों होता है?

समाधान

होना तो यह चाहिए कि पहली वेदी से ज़्यादा उत्साह दूसरे वेदी के दर्शन के लिए होना चाहिए, दूसरे से तीसरे, ज्यों-ज्यों आपके दर्शन बढ़े, आपका उत्साह बढ़ते जाना चाहिए। लेकिन अक्सर उल्टा होता है पहली वेदी में जितना उत्साह रहता है, उत्तरोत्तर कम होता जाता है। यही है मन, मन हर जगह नहीं लगता, यह मन की दुर्बलता है। मूल वेदी के प्रति भाव अधिक इसलिए लगता है कि मूल वेदी के प्रति, उसकी प्रतिष्ठा के प्रति भावना बहुत उच्च होती है और जो भी दर्शन वन्दन करते हैं वहाँ इतना पॉजिटिव वेब छोड़ करके जाते हैं कि हर किसी को वह प्रभावित कर लेते है। अन्य वेदियों में लोग ढंग से दर्शन नहीं करते हैं और संख्या ज़्यादा हो जाती है, तो मन थोड़ा सा कम प्रभावित होता है। होना यह चाहिए कि उत्तरोत्तर प्रभावना बढ़े लेकिन हमारे मन की बड़ी दुर्बलता है, मन का संस्कार बड़ा विचित्र है, वह उत्तरोत्तर कम होता जाता है। एक के दर्शन कर लिया वह तृप्त होता है। मन विचित्र है वह धर्म में जल्दी तृप्त होता है और पाप में सदैव अतृप्त बना रहता है। पाप का काम है एक तो कर लिया, दूसरे को न करे ऐसा नहीं कहता। दूसरे को करो, तीसरे को, चौथे को करो लेकिन धर्म के क्षेत्र में मन इसी दुर्बलता की वजह से सदैव जल्दी तृप्त होता है। इसीलिए इतनी वेदियाँ बनाई जाती है कि कैसे भी मन तृप्त न हो। एक के दर्शन करो, फिर मन लगाओ, फिर तीसरे के लगाओ, चौथे के लगाओ। इसके लिए एक उपाय हैं आप अपने हृदय में भाव जगाओ कि मैं जितने भगवान के दर्शन करूँगा, उतने कर्म कटेंगे और मैं मूर्ति के दर्शन नहीं कर रहा हूँ भगवान के दर्शन कर रहा हूँ। आप मूर्ति के दर्शन करते हो तो निपटाते हो, मूल वेदी के दर्शन कर लिया और चौबीसी हो तो ऐसे निपटा देते हो। अगर सोचो वहाँ 24 के 24 भगवान एक साथ विद्यमान होते तो आप क्या करते? एक के करते कि सब के? सब के करते। किसी मुनिसंघ के दर्शन करने जाते हो, आचार्य महाराज के दर्शन करने जाओगे, आनन्द आएगा। उनके दर्शन के भाव कुछ और ही होंगे लेकिन उनके दर्शन करने के बाद और के दर्शन करते हो तो भाव बनते हैं कि नहीं बनते? मुनि तुम्हें जीवन्त दिखते हैं इसलिए तुम्हारे दर्शन के भाव होते हैं और मन्दिर की प्रतिमा तुम्हें जीवन्त प्रतीत नहीं होती इसलिए दर्शन करते समय भी भाव नहीं लगते। कोशिश करें जीवंत भगवान को साक्षात्कार करने के।

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