हम ऐसा कौन-सा काम करें कि शुभ और अशुभ कर्म से परे हो जाये?

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शंका

अशुभ कर्म करने से कर्म बनते हैं और शुभ कर्म करने से भी कर्म बनते है। तो शुभ कर्म सोने की बेड़ी है और अशुभ कर्म लोहे की बेड़ी। तो शुभ और अशुभ कर्म नहीं करके हम ऐसा कौन-सा काम करें, जिससे कि इनसे हम परे हो जाए?

कैलाश पाटनी, 10 बी स्कीम

समाधान

शुभ और अशुभ दोनों कर्म है और कर्म तो कर्म है। लोहे की बेड़ी हो या सोने की बेड़ी, बेड़ी तो बेड़ी है। पहली बात तो यह ध्यान रखें कि अशुभ प्रवृत्ति से तो नियमतः केवल अशुभ का बन्ध होता है। शुभ की प्रवृत्ति से शुभ का बन्ध और अशुभ की निर्जरा दोनों साथ साथ चलती है। यह अवधारणा एकदम स्पष्ट कर लेना। शुभ प्रवृत्ति वह प्रवृत्ति है जिसमें पुण्य के बन्ध के साथ-साथ पाप की निर्जरा भी होती है। बड़ी प्रवृत्तियों की बात तो जाने दीजिए, आचार्य वीरसेन महाराज ने लिखा है “अरिहंत भगवान को किया जानेवाला नमस्कार तात्कालिक पुण्य के बन्ध से असंख्यात् पाप की निर्जरा का कारण है।” उदाहरण तो मैं बहुत दे सकता हूँ लेकिन अपनी यह धारणा बना लीजियेगा कि शुभ प्रवृत्ति ही केवल बन्ध का कारण नहीं है, वह अशुभ का निवारण भी करती है और आपके लिए वही एक धर्म है। उसी के बल पर आप अपने जीवन का उत्कर्ष कर सकते हैं। रहा सवाल- लोहे की बेड़ी हो या सोने की बेड़ी, तो ध्यान रखना बेड़ी सदैव लोहे की होती है, सोने की कहीं नहीं होती। सोने के आभूषण होते हैं, गहने के लिए है। पुण्य पाप कर्म, पुण्य पाप बन्ध, पुण्य पाप क्रिया और पुण्य पाप फल- इन चारों को ध्यान में रखें। पुण्य और पाप का जहाँ तक कर्म का सवाल है, दोनों समान है। कर्म सामान्य की दृष्टि से पुण्य पाप एक है। पुण्य पाप बन्ध की बात करें, तो जैसे-जैसे गुणस्थान की विशुद्धि बढ़ती है, पुण्य का बन्ध बढ़ता जाता है। पुण्य को आप रोक नहीं सकते, सम्यग्दृष्टि उत्तरोत्तर विशिष्ट से विशिष्टतर पुण्य का बन्ध करता है। पुण्य पाप क्रिया, तो पुण्य पाप क्रिया में आपके लिए पुण्य की क्रिया उपादेय हैं, पाप की क्रिया सर्वथा हेय है क्योंकि अभी आप निष्क्रिय होने की भूमिका में नहीं है। इसलिए आपको बुद्धि पूर्वक पुण्य की क्रिया करनी होगी। भगवान की पूजा करना, दान करना, व्रत करना, उपवास करना, स्वाध्याय करना, आदि जितनी भी धार्मिक क्रियाएँ आपकी है, वह पुण्य की क्रिया है, जो तात्कालिक रूप से उपादेय होने के कारण आपका धर्म है। और पुण्य पाप का फल- इन दोनों को सदैव समान मानो। तो पाप का फल जैसे छोड़ते हो, पाप के फल को जैसे पसन्द नहीं करते, वैसे ही पुण्य के फल को भी तिलांजलि दो। पुण्य के फल को मत भोगो, यही जीवन का सार है।

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