गुरुवर, आपने बताया कि दीवाली पर “दिये” नहीं जलाने चाहिए क्योंकि उससे जीव हिंसा होती है और आपने यह भी बताया था कि हर इंसान को अपने जन्मदिन पर “दिये” ही जलाना चाहिए। जितने वर्ष इंसान के पूरे हो उतने “दिये” जला सकते है, तो गुरुदेव, क्या उसमें जीव हिंसा नहीं होगी या फिर मन्दिरों में जो अखंड ज्योत जलती है उसमे जीव हिंसा नहीं होती है?
गृहस्थ की प्रत्येक क्रिया में किसी न किसी प्रकार की सूक्ष्म हिंसा होती ही है, लेकिन इसमें कई क्रिया प्रतीकात्मक रूप में की जाती है, जैसे जन्मदिन पर जो केक बनता है उसमें अग्नि जलती है। कोई मिठाई बनवायी गयी उसमें भी तो कुछ न कुछ प्रोसेस होती ही है, इन सब में हिंसा होती है। गृहस्थ के द्वारा सामान्य षटकाय जीव की विराधना होती ही है। अपितु गृहस्थ को त्रस जीवोंं की हिंसा से बचना चाहिए और धार्मिक क्रियायें विवेकपूर्वक करना चाहिये। रात्रि में दीप जलाते समय कीडे़ गिरते है, उस समय अपना विवेक रखे, कम से कम दीप जलायें। अखंड ज्योत की परम्परा आजकल कुछ ज़्यादा बढ़ गयी है। इसकी कोई प्राचीन परम्परा नहीं है, लेकिन फिर भी यदि अखंड ज्योत लगवाई जाती है, तो विशेष प्रबन्ध करें कि अन्दर सिर्फ हवा का प्रवेश हो, जीव का प्रवेश न हों। दीप जलाने की बात जन्मदिन पर मैंने इसलिए कही क्योंकि हमारी संस्कृति है “तमसो मा ज्योतिर्गमय”। वहाँ दीप को प्रतीक बनाकर जलाया जाता है कि हम अन्धेरे से उजाले की ओर बढ़ रहे हैं और हम अपने जीवन का अन्धेरा मिटा रहे हैं एवं नया सवेरा उगा रहे है।
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