जब कोई गुस्से में किसी से कुछ कहता है, तो वह चुप रह जाता है जिससे घर में अशांति न हो लेकिन उसके मन में चलता रहता है कि “उसने मुझे ऐसा क्यों कहा?” और दूसरे प्रकार के लोग वो होते हैं जो पलटकर जवाब दे देते हैं, लेकिन उनके मन में कुछ नहीं रहता, इनके बारे में लोग भी ये कह देते हैं कि “यह तो साफ मन का है”। दोनों में किसको कैसा कर्मास्रव होता है और हमें कैसा आचरण अपनाना चाहिए?
गुस्से को सह लेना, गुस्से को पी लेना और गुस्से को भड़ास निकाल करके पूरा कर देना- सबसे उत्तम है किसी के गुस्से को सह लेना। अगर किसी का कोई अनुचित व्यवहार/बर्ताव है, तो सह लेना सबसे उत्तम है और जब व्यक्ति सह लेता है, तो कहने की भी बात नहीं आती। अपना कर्म का उदय मान कर, positive (सकारात्मक) दृष्टि से सोचकर, सामने वाले का स्वभाव मानकर या अन्य कोई बात मान कर जो व्यक्ति सह लेता है उसके दिमाग में कोई tension (तनाव) नहीं होता। लेकिन जो व्यक्ति किसी परिस्थितिवश गुस्से को पीता है, रोकता है, प्रकट नहीं करता, यह सोच करके चुप रह जाता है कि “अभी जवाब देंगे तो सामने वाला बवाल मचा देगा” तो उसने मन में गुस्से को रख लिया, अभी उसे अन्दर तक नहीं उतारा तो ये तकलीफ देय होता है, यह तनाव देता है। “सामने वाले ने ऐसा कहा, वैसा बोला”- यह सोचकर ऐसा आदमी अन्दर ही अन्दर घुटता है।
रोकना संयम है, बहुत अच्छी बात है, पर मन को रोकने के साथ मन को मोड़ने की कला अपना लेना चाहिए। प्रथम चरण में रोकिए, प्रतिक्रिया को रोक लीजिये और रोक लेने के थोड़ी देर बाद ठंडे दिमाग से सोचिए, “अरे! उसने कहा ही तो है, किया थोड़े ही है, वह तो उनकी आदत ही है, कहते ही रहते हैं, हमसे ही नहीं, सबसे कहते रहते हैं, चलो कह दिया तो कह दिया, मेरा क्या बिगड़ा”- इस प्रकार का दिशा दर्शन अपने मन को दो, मन शान्त हो जाएगा। मन को रोकने के बाद मन को मोड़ दो, यह अच्छा तरीका है।
लेकिन तीसरा तरीका – “हम तो साफ़ मन के हैं, जो हुआ भड़ास निकाल देते हैं।” ठीक है, साफ मन के हो, लेकिन नदी में जब बाढ़ आती है, तो उस समय पानी गंदा होता है, जब बाढ़ का वेग निकल जाता है तब नदी का पानी साफ होता है। तो ऐसे व्यक्ति को कहना चाहिए “भाई साहब! आप साफ मन के तो हो लेकिन उस समय तो आपका मन बड़ा गंदा था, उफान था, कषाय की बाढ़ थी, बाढ़ का रूप अच्छा नहीं होता। इसलिए मन को साफ रखने का स्थाई उपक्रम करो कि कभी मन में कषायों की बाढ़ ही न आये।
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