हम कैसे ये जानें कि हम सम्यक् दृष्टि हैं, हम भव्य हैं?
नरेन्द्र जैन, ललितपुर
आप सम्यक् दृष्टि हैं या नहीं, इसकी पहचान के लिए सूक्ष्म रुप से तो हमारे पास कुछ नहीं है पर इसकी स्थूल पहचान है – गृहीत मिथ्यात्त्व का त्याग करो- सच्चे देव शास्त्र गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी की पूजा आराधना मत करो।
दूसरी बात- सम्यक् दर्शन के समस्त गुणों को अपने जीवन में प्रकट करो- यदि हमारे जीवन में 8 अंग से सहित, 8 मद से रहित, 3 मूढ़ता से रहित और छह अनायतनों से मुक्त प्रवृत्ति हो; हमारे जीवन में प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य जैसे गुणों की अभिव्यक्ति हो तो समझ करके चलना चाहिए कि मैं सम्यक् दर्शन की भूमिका में जी रहा हूँ, गारंटी नहीं कि सम्यक् दर्शन हो ही गया पर ऐसा करने से ही समझा जा सकता है कि ‘मैं सम्यक् दर्शन की भूमिका में हूँ’- यह सम्यक् दृष्टि की पहचान है।
अब प्रश्न है जीव के भव्य या अभव्य होने का- यह भी दिव्य ज्ञानियों के ज्ञान का विषय है। एक आचार्य ने हमारे भव्यत्व को प्रकट करने का, भव्यत्व का प्रमाण हम सबके बीच रखा, भव्यत्व की कसौटी हम सब को दी। उन्होंने कहा कि –
तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता।
निश्चितं स भवेद् भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।
जो भगवान की वाणी को प्रीति पूर्वक सुनता है समझो वह भविष्य में निर्वाण का पात्र है और भव्य जीव है, निश्चित रूप से वह भव्य जीव है।
आप सब भगवान की वाणी को सुनने के लिए लालायित हैं, उत्कंठित है, आचार्य की इस उक्ति के अनुसार आप सब भव्य हैं और अपने आप को भव्य मानो। एक बार गुरुदेव के चरणों में कोई व्यक्ति आया, श्रद्धालु था, उसने चरण पकड़ कर रोते आँखों से पूछा – “गुरुदेव! हमने सुना अभव्य जीव मोक्ष नहीं जाता, उसे संसार में जाना पड़ता है?” गुरुदेव ने कहा “आपने ठीक सुना।” “महाराज! मैं अभव्य तो नहीं हूँ?” आँखों से झर-झर आंसू बहते हुए उसने पूछा, “अगर मैं अभव्य हुआ तब संसार में रहना पड़ेगा क्या?” गुरुदेव ने कहा “भैया! भव्य और अभव्य के विषय में कोई दिव्य ज्ञानी ही बता सकते हैं पर तेरे लक्षण देखकर मैं यह कह सकता हूँ कि तू निश्चित रूप से भव्य हो क्योंकि अभव्य के अन्दर ऐसी भीति का भाव बहुत दुर्लभ है।”
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