जीवन मुक्त और सिद्ध परमात्मा में क्या अन्तर होता है?
अरिहंत को जीवन मुक्त कहते हैं। जब हम अपने घतिया कर्म यानि मोह, ज्ञानावर्ण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्मों को नष्ट कर देते हैं, केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं, तो जीवनमुक्त कहलाते हैं। अरिहंत परमात्मा, तीर्थंकर जो समवसरण में विराजमान होकर अपना तत्त्व उपदेश हम सबको देते हैं, वह जीवन मुक्त कहलाता है। जब हम संसार से पार होते हैं, शरीरातीत हो जाते हैं, अशरीरी सिद्ध बन जाते हैं, तब हम इस संसार से मुक्त कहलाते हैं।
इन दोनों में अन्तर ऐसे समझ लो- जैसे किसी व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा हो और उसके जीवन की cr-confidential report (गोपनीय रिपोर्ट) के आधार पर उसकी सजा कम कर दी गई और उसे सजा मुक्त घोषित कर दिया गया। 20 साल की सजा हो गई और 20 साल की सजा पूरी होने के बाद उसे सजा मुक्त घोषित कर दिया। लेकिन जिस समय अदालत ने यह फैसला दिया, उस समय शाम हो गई, अदालत का फैसला बाहर नहीं आ पाया और शुक्रवार का दिन था, शनिवार की छुट्टी थी, रविवार की छुट्टी थी। वो आदमी अभी भी है जेल में है, अदालत ने तो उसे सजा मुक्त घोषित कर दिया, पर है कहाँ? जेल में! उसे सूचना भी मिल गई कि उसे मुक्त कर दिया गया है। अदालत ने पूरी तरह भरी सभा में कहा “आप को सजा मुक्त घोषित किया जाता है।” सजा मुक्त घोषित होते ही वह अपने आप को मुक्त अनुभव करेगा या नहीं? अनुभव करेगा, मुक्त ही करेगा। क्योंकि “अब मैं मुक्त हो गया। मुझे अदालत ने बरी कर दिया। अब मेरे ऊपर कोई अभियोग नहीं।” मुक्त तो हो गया, पर है जेल में। जेल से बाहर कब निकलेगा, जब सारी औपचारिकताएँ पूरी हो जाएँगी। केवल ज्ञान की प्राप्ति, जीवनमुक्ति इस संसार के कारागृह से मुक्ति की उद्घोषणा है और देह मुक्ति इस जेल से बाहर निकलना है।
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