रक्तदान, किडनी दान और आंखें दान करना क्या उचित है?
रक्तदान आदि के सम्बन्ध में कुछ लोगों में कंफ्यूजन है और कुछ लोग निषेध करते हैं कि यह जैन धर्म से सम्बन्धित नहीं है। ऐसा ही कुछ हमारे कतिपय त्यागी और साधुगण भी कहते हैं। मेरे दृष्टि में यह बात समयोचित नहीं है, आगमोनुकूल भी नहीं। आगम में कहीं इस तरह का विधान नहीं किया, अगर आप आगम को ठीक ढंग से देखें तो आपको पता लगेगा। जिस काल में हमारे यहाँ आगम लिखे गए, उस काल में हमारे यहाँ इनके प्रिजर्वेशन (परिरक्षण) की ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। इसलिए इन सब का यत-किंचित निषेध किया गया। लेकिन हम यह जानते हैं कि जैन धर्म का मूल है- जीव रक्षा। यदि किसी के जीवन की रक्षा के निमित्त आपका कुछ भी लगता है तो वह धर्म है। आप रक्तदान करते हैं तो पहले से ब्लड ग्रुप टेस्ट किया जाता है, ब्लड ग्रुप चेक करने के बाद ही आप एक दूसरे को रक्त देते हैं। ब्लड बैंक में रखा जाता है, तो प्रिजर्व किया जाता है यानि ब्लड सेल्स डेड नहीं होते। ब्लड सेल्स डेड नहीं है तो ब्लड सेल्स का एक बॉडी से दूसरे बॉडी में जाना ठीक वैसा ही है जैसे आपके शरीर के एक नर्व से दूसरी नर्व में रक्त का प्रवाह। इसमें कुछ भी असंगत नहीं है, इसलिए इसको देने में मुझे कुछ भी पाप जैसा नहीं दिखता।
जहाँ तक अंगदान की बात है, भगवान शांतिनाथ के पूर्व पर्याय को देखें। राजा मेघरथ के नाम से उनकी एक पर्याय थी, उस पर्याय में वह दया के आराधक थे। उनकी दयाशीलता की चर्चा स्वर्ग में हो गई। देवराज इन्द्र ने जब उनकी दयाशीलता की प्रशंसा की तो एक देवता के मन में कुतूहल जागा, ‘मध्य लोक में ऐसा कौन सा मनुष्य है जो ऐसी दया धारता है कि इन्द्र उसकी प्रशंसा करें?’ उसने मेघरथ की परीक्षा लेने की ठानी। एक बार राजा मेघरथ सामने एक कबूतर फड़फडाता हुआ आया, मेघरथ ने उसे उठाया कि तभी उसका पीछा करते करते एक बाज आ गया। बाज ने कहा कि यह मेरा शिकार है, आप मुझे दो, मैं इसे खाऊँगा। मेघरथ ने कहा- ‘नहीं, मैंने इसे बचाया है, मैं तुमको नहीं दे सकता। जीवों की रक्षा करना मेरा धर्म है।’ बाज ने कहा -‘अगर जीवों की रक्षा करना तुम्हारा धर्म है, तो किसी को भूखों मारना क्या धर्म है। मेरी भूख इसे खाये बिना निवर्त नहीं होगी। मेरे भोजन को छीनना आपका हक नहीं।’ तो मेघरथ ने कहा ‘ठीक, मैं तुम्हारा भोजन नहीं छीनता लेकिन शरणागत की रक्षा करना मेरा धर्म है। यदि तुम्हारी भूख इसके माँस खाने से मिटती है तो लो मैं तुम्हें अपना माँस देता हूँ। इसके वजन के बराबर का मेरा माँस ले लो। तब तो तुम तृप्त हो जाओगे, बस तैयार हो जाओ।’
एक तराजू बुलाई गई और राजा मेघरथ ने अपनी जांघ का माँस काटकर के तराजू पर रखा। एक तरफ कबूतर दूसरी तरफ उनका मांस, पलड़ा हिला नही और उसके बाद उन्होंने अपना पूरा पाँव काट के रखा तो भी पलड़ा नहीं हिला। आख़िरकार उन्होंने कहा, ‘मुझे अपने वचन को तो निभाना है, इस कबूतर के बराबर माँस मैं तुम्हें दूँगा’ और उस कबूतर की रक्षा के लिए उन्होंने खुद को तराजू पर चढ़ा दिया। तब वह देवता प्रकट हुआ और बोल ‘हमें तुम्हारे माँस की कोई जरूरत नहीं है, तुम सच में दया निधान हो, तुम जैसा दयालु इस धरती पर और कोई दूसरा नहीं है। इसलिए तुम धन्य हो, तुम धन्य हो, तुम धन्य हो।’
बन्धुओं यह है दया का आदर्श, संभवत उसी भव में उन्हें तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ और वे ही शांतिनाथ भगवान बने। ये आगम है पुराण है। इसलिए लकीर के फकीर मत बनो। यदि यह बात आप सार्वजनिक रूप से कह दो कि जैन धर्म में रक्तदान को दोष कहा गया तो लोग जैनियों को सबसे क्रूर मानेंगे। किसी मरते हुए जैनी को भी कोई रक्त नहीं देगा। जैन धर्म इतना अव्यावहारिक नहीं है। जैन धर्म करुणा से अभिसिंचित धर्म है। इसलिए जिस भी कार्य और क्रिया में जीवों की रक्षा होने की सम्भावना है उसको हमें हर प्रकार से प्रोत्साहित करना चाहिए और उसकी अनुमोदना करना चाहिए। यही हमारा धर्म है “जीवाणम रखणम धम्मो”। हम जीवों की रक्षा को ही धर्म मान करके चलें।
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